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यद्ध॑रि॒णो यव॒मत्ति॒ न पु॒ष्टं ब॒हु मन्य॑ते। शू॒द्रो यदर्या॑यै जा॒रो न पोष॒मनु॑ मन्यते ॥३१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यत्। ह॒रि॒णः। यव॑म्। अत्ति॑। न। पु॒ष्टम्। ब॒हु॒। मन्य॑ते। शू॒द्रः। यत्। अर्य्या॑यै। जा॒रः। न। पोष॑म्। अनु॑। म॒न्य॒ते॒ ॥३१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:23» मन्त्र:31


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा किस हेतु से नष्ट होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो (शूद्रः) मूर्खों के कुल में जन्मा हुआ मूढ़जन (अर्य्यायै) अपने स्वामी अर्थात् जिसका सेवक उसकी वा वैश्यकुल की स्त्री के अर्थ (जारः) जार अर्थात् व्यभिचार से अपनी अवस्था का नाश करनेवाला होता है, वह जैसे (पोषम्) पुष्टि का (न) नहीं (अनुमन्यते) अनुमान रखता वा (यत्) जो राजा (हरिणः) हरिण जैसे (यवम्) उगे हुए जौ आदि को (अत्ति) खाता है, वैसे (पुष्टम्) धन, सन्तान, स्त्री, सुख, ऐश्वर्य्य आदि से पुष्ट अपने प्रजाजन को (बहु) अधिक (न) नहीं (मन्यते) मानता, वह सब ओर से क्षीण नष्ट और भ्रष्ट होता है ॥३१ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा और राजपुरुष परस्त्री, वेश्यागमन के लिए पशु के समान अपना वर्त्ताव करते हैं, उनको सब विद्वान् शूद्र के समान जानते हैं। जैसे शूद्र मूर्खजन श्रेष्ठों के कुल में व्यभिचारी होकर सब को वर्णसंकर कर देता है, वैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य शूद्रकुल में व्यभिचार करके वर्णसंकर के निमित्त होकर नाश को प्राप्त होते हैं ॥३१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा केन हेतुना नश्यतीत्याह ॥

अन्वय:

(यत्) यः (हरिणः) (यवम्) (अत्ति) भक्षयति (न) (पुष्टम्) प्रजाजनम् (बहु) अधिकम् (मन्यते) जानाति (शूद्रः) मूर्खकुलोत्पन्नः (यत्) यः (अर्य्यायै) अर्य्यायाः स्वामिनो वैश्यस्य वा स्त्रियाः (जारः) व्यभिचारेण वयोहन्ता (न) निषेधे (पोषम्) पुष्टिम् (अनु) (मन्यते) ॥३१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यद्यः शूद्रोऽर्यायै जारो भवति स यथा पोषं नाऽनुमन्यते यद् यो राजा हरिणो यवमत्तीव पुष्टं प्रजाजनं बहु न मन्यते, स सर्वतः क्षीणो जायते ॥३१ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि राजा राजपुरुषाश्च परस्त्रीवेश्यागमनाय पशुवद्वर्त्तन्ते, तान् सर्वे विद्वांसः शूद्रानिव जानन्ति यथा शूद्र आर्य्यकुले जारो भूत्वा सर्वान् संकरयति, तथा ब्राह्मणक्षत्रियवैश्याः शूद्रकुले व्यभिचारं कृत्वा वर्णसंकरनिमित्ता भूत्वा नश्यन्ति ॥३१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे राजे व राजपुरुष परस्रीवेश्यागमन करून पशूप्रमाणे आपले वर्तन ठेवतात. त्यांना सर्व विद्वान शुद्राप्रमाणे मानतात. जसे शुद्र, मूर्ख लोक श्रेष्ठ लोकांच्या कुळात व्याभिचारी बनून वर्णसंकर करतात तसे ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य, शूद्र कुळाशी व्याभिचार करून वर्णसंकर घडवून आणतात व नष्ट होतात.