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ऊ॒र्ध्वामे॑ना॒मुच्छ्रा॑पय गि॒रौ भा॒रꣳ हर॑न्निव। अथा॑स्यै॒ मध्य॑मेधता शी॒ते वाते॑ पु॒नन्नि॑व ॥२६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऊ॒र्ध्वाम्। ए॒ना॒म्। उत्। श्रा॒प॒य॒। गि॒रौ। भा॒रम्। हर॑न्नि॒वेति॒ हर॑न्ऽइव। अथ॑। अ॒स्यै॒। मध्य॑म्। ए॒ध॒ता॒म्। शी॒ते। वाते॑ पु॒नन्नि॒वेति॑ पु॒नन्ऽइ॑व ॥२६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:23» मन्त्र:26


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजपुरुष किसकी उन्नति करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! तू (गिरौ) पर्वत पर (भारम्) भार (हरन्निव) पहुँचाते हुए के समान (एनाम्) इस राज्यलक्ष्मीयुक्त (ऊर्ध्वाम्) उत्तम कक्षावाली प्रजा को (उच्छ्रापय) सदा अधिक-अधिक उन्नति दिया कर (अथ) अब (अस्यै) इस प्रजा के (मध्यम्) मध्यभाग लक्ष्मी को पाकर (शीते) शीतल (वाते) पवन में (पुनन्निव) खेती करनेवालों की क्रिया से जैसे अन्न आदि शुद्ध हो वा पवन के योग से जल स्वच्छ हो, वैसे आप (एधताम्) वृद्धि को प्राप्त हूजिये ॥२६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। राजा जैसे कोई बोझा ले जानेवाला, अपने शिर वा पीठ पर बोझा को उठा, पर्वत पर चढ़, उस भार को ऊपर स्थापन करे, वैसे लक्ष्मी को उन्नति होने को पहुँचावे वा जैसे खेती करनेवाले भूसा आदि से अन्न को अलग कर उस अन्न को खाके बढ़ते हैं, वैसे सत्य न्याय से सत्य असत्य को अलग कर न्याय करने हारा राजा नित्य बढ़ता है ॥२६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजपुरुषः कामुत्कृष्टां कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

(ऊर्ध्वाम्) उत्कृष्टाम् (एनाम्) राज्यश्रिया युक्तां प्रजाम् (उत्) (श्रापय) ऊर्ध्वं नय (गिरौ) पर्वते (भारम्) (हरन्निव) (अथ) (अस्यै) अस्याः (मध्यम्) (एधताम्) वर्द्धताम् (शीते) (वाते) वायौ (पुनन्निव) पृथक्कुर्वन्निव ॥२६ ॥ ऊर्ध्वामेनामुच्छ्रापयेति। श्रीर्वै राष्ट्रमश्वमेधः श्रियमेवास्मै राष्ट्रमूर्ध्वमुच्छ्रयति गिरौ भारꣳ हरन्निवेति। श्रीर्वै राष्ट्रस्य भारः श्रियमेवास्मै राष्ट्र संनह्यत्यथो श्रियमेवास्मिन् राष्ट्रमधिनिदधाति। अथास्यै मध्यमेधतामिति श्रीर्वै राष्ट्रस्य मध्य श्रियमेव राष्ट्रे मध्यतोऽन्नाद्यं दधाति शीते वाते पुनन्निवेति। क्षेमो वै राष्ट्रस्य शीतं क्षेममेवास्मै करोति ॥ (शत०३०.१.२.३.४)

पदार्थान्वयभाषाः - हे राजन् ! त्वं गिरौ भारं हरन्निवैनामूर्ध्वामुच्छ्रापय। अथास्यै मध्यं प्राप्य शीते वाते पुनन्निव भवानेधताम् ॥२६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारौ। यथा कश्चिद् भारवाट्शिरसि पृष्ठे वा भारमुत्थाप्य गिरिमारुह्योपरि स्थापयेत्तथा राजा श्रियमुन्नतिभावं नयेत्। यथा वा कृषीवला बुसादिभ्योऽन्नं पृथक्कृत्य भुक्त्वा वर्द्धन्ते, तथा सत्यन्यायेन सत्यासत्ये पृथक्कृत्य न्यायकारी राजा नित्यं वर्द्धते ॥२६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. जसे एखादा भारवाहक आपल्या डोक्यावर किंवा पाठीवर भार घेऊन पर्वतावर चढतो व तेथे भार ठेवतो. तशी राजाने लक्ष्मी हळूहळू वाढवावी किंवा जसे शेतकरी धान्याचा भूसा वेगळा करून ते अन्न खातात. तसे न्यायमार्गाने सत्यासत्य वेगवेगळे करून न्याय करणारा राजा सदैव उन्नत होतो.