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य॒को᳖ऽस॒कौ श॑कुन्त॒कऽआ॒हल॒गिति॒ वञ्च॑ति। विव॑क्षतऽइव ते॒ मुख॒मध्व॑र्यो॒ मा न॒स्त्वम॒भि भा॑षथाः ॥२३ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

य॒कः। अ॒स॒कौ। श॒कु॒न्त॒कः। आ॒हल॑क्। इति॑। वञ्च॑ति। विव॑क्षतऽइ॒वेति॒ विव॑क्षतःऽइव। ते॒। मुख॑म्। अध्व॑र्यो॒ऽइत्यध्व॑र्यो। मा। नः॒। त्वम्। अ॒भि। भा॒ष॒थाः॒ ॥२३ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:23» मन्त्र:23


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अध्वर्यो) यज्ञ के समान आचरण करने हारे राजा ! (त्वम्) तू (नः) हम लोगों के प्रति (मा, अभिभाषथाः) झूठ मत बोलो और (विवक्षत इव) बहुत गप्प-सप्प बकते हुए मनुष्य के मुख के समान (ते) तेरा (मुखम्) मुख मत हो, यदि इस प्रकार (यकः) जो (असकौ) यह राजा गप्प-सप्प करेगा तो (शकुन्तकः) निर्बल पखेरू के समान (आहलक्) भलीभाँति उच्छिन्न जैसे हो (इति) इस प्रकार (वञ्चति) ठगा जायेगा ॥२३ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजा कभी झूठी प्रतिज्ञा करने और कटुवचन बोलनेवाला न हो तथा न किसी को ठगे, जो यह राजा अन्याय करे तो आप भी प्रजाजनों से ठगा जाये ॥२३ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(यकः) यः (असकौ) असौ राजा (शकुन्तकः) निर्बलः पक्षीव (आहलक्) समन्ताद् विलिखितं यथा स्यात्तथा (इति) (वञ्चति) वञ्चितो भवति (विवक्षत इव) वक्तुमिच्छोरिव (ते) तव (मुखम्) आस्यम् (अध्वर्यो) योऽध्वरमिवाचरति तत्सम्बुद्धौ (मा) (नः) अस्मान् (त्वम्) (अभि) (भाषथाः) वदेः ॥२३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अध्वर्यो ! त्वं नो माभिभाषथा मिथ्याभाषणं विवक्षत इव ते मुखं मा भवतु। यद्येवं यकोऽसकौ करिष्यसि, तर्हि शकुन्तक इव राजाऽऽहलगिति न वञ्चति ॥२३ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजा कदाचिन्मिथ्याप्रतिज्ञः परुषवादी न स्यान्न कंचिद् वञ्चयेत्। यद्ययमन्यायं कुर्यात्तर्हि स्वयमपि प्रजाभिर्वञ्चितः स्यात्॥२३ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजाने कधी असत्य प्रतिज्ञा करू नये व कटू वचन बोलू नसे किंवा कुणाला फसवू नये. जो राजा अन्याय करतो तो स्वतः प्रजेकडून फसविला जातो.