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हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भः सम॑वर्त्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ऽआसीत्। स दा॑धार पृथि॒वीं द्यामु॒तेमां कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भ इति॑ हिरण्यऽग॒र्भः। सम्। अ॒व॒र्त्त॒त॒। अग्रे॑। भू॒तस्य॑। जा॒तः। पतिः॑। एकः॑। आ॒सी॒त्। सः। दा॒धा॒र॒। पृ॒थि॒वीम्। द्याम्। उ॒त। इ॒माम्। कस्मै॑। दे॒वाय॑। ह॒विषा॑। वि॒धे॒म॒ ॥१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:23» मन्त्र:1


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब तेईसवें अध्याय का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर क्या करता है, इस विषय को कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (भूतस्य) उत्पन्न कार्यरूप जगत् के (अग्रे) पहिले (हिरण्यगर्भः) सूर्य, चन्द्र, तारे आदि ज्योति गर्भरूप जिसके भीतर हैं, वह सूर्य आदि कारणरूप पदार्थों में गर्भ के समान व्यापक स्तुति करने योग्य (समवर्त्तत) अच्छे प्रकार वर्त्तमान और इस सब जगत् का (एकः) एक ही (जातः) प्रसिद्ध (पतिः) पालना करनेहारा (आसीत्) होता है (सः) वह (इमाम्) इस (पृथिवीम्) विस्तारयुक्त पृथिवी (उत) और (द्याम्) सूर्य आदि लोकों को रचके इनको (दाधार) तीनों काल में धारण करता है, उस (कस्मै) सुखस्वरूप (देवाय) सुख देनेहारे परमात्मा के लिये जैसे हम लोग (हविषा) सर्वस्व दान करके उस की (विधेम) परिचर्या सेवा करें, वैसे तुम भी किया करो ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब सृष्टि प्रलय को प्राप्त होकर प्रकृति में स्थिर होती है और फिर उत्पन्न होती है, उस के आगे जो एक जागता हुआ परमात्मा वर्त्तमान रहता है, तब सब जीव मूर्छा सी पाये हुए होते हैं। वह कल्प के अन्त में प्रकाशरहित पृथिवी आदि सृष्टि तथा प्रकाशसहित सूर्य आदि लोकों की सृष्टि का विधान, धारण और सब जीवों के कर्मों के अनुकूल जन्म देकर सब के निर्वाह के लिये सब पदार्थों का विधान करता है, वही सब को उपासना करने योग्य देव है, यह जानना चाहिये ॥१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरः किं करोतीत्याह ॥

अन्वय:

(हिरण्यगर्भः) हिरण्यानि सूर्य्यादीनि ज्योतींषि गर्भे यस्य कारणरूपस्य सः (सम्) सम्यक् (अवर्त्तत) (अग्रे) सृष्टेः प्राक् (भूतस्य) उत्पन्नस्य कार्य्यरूपस्य (जातः) प्रादुर्भूतः (पतिः) स्वामी (एकः) असहायोऽद्वितीयेश्वरः (आसीत्) (सः) (दाधार) धृतवान् धरति धरिष्यति वा। अत्र तुजादीनाम् [अ०६.१.७] इत्यभ्यासदैर्घ्यम् (पृथिवीम्) विस्तीर्णां भूमिम् (द्याम्) सूर्य्यादिकां सृष्टिम् (उत) (इमाम्) प्रत्यक्षाम् (कस्मै) सुखस्वरूपाय (देवाय) सर्वसुखप्रदात्रे परमात्मने (हविषा) आत्मादिसर्वस्वदानेन (विधेम) परिचरेम सेवेमहि। विधेमेति परिचरणकर्मा० ॥ (निघं ३.४) ॥१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यो भूतस्य जगतोऽग्रे हिरण्यगर्भः समवर्त्तताऽस्य सर्वस्यैको जातः पतिरासीत् स इमां पृथिवीमुत द्यां दाधार तस्मै कस्मै देवाय यथा वयं हविषा विधेम तथा यूयमपि विधत्त ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा सृष्टिः प्रलयं गत्वा प्रकृतिस्था भवति, पुनरुत्पद्यते तस्या अग्रे य एकः परमात्मा जाग्रन् सन् भवति, तदानीं सर्वे जीवा मूर्छिता इव भवन्ति। स कल्पान्ते प्रकाशरहितां पृथिव्यादिरूपां प्रकाशसहितां सूर्यादिलोकप्रभृति सृष्टिं विधाय धृत्वा सर्वेषां कर्मानुकूलतया जन्मानि दत्त्वा सर्वेषां निर्वाहाय सर्वान् पदार्थान् विधत्ते, स एव सर्वैरुपासनीयो देवोऽस्तीति वेद्यम् ॥१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचक लुप्तोपमालंकार आहे. जेव्हा सृष्टीचा प्रलय होऊन प्रकृतीचे रूप स्थिर होते. त्यावेळी एकटा परमेश्वर जागृत स्वरूपात विद्यमान असतो व सर्व जीव मूर्छितावस्थेत असतात. प्रलयावस्थेनंतर प्रकाशरहित पृथ्वी इत्यादी सृष्टी व प्रकाशयुक्त सूर्य इत्यादींची परमेश्वर रचना करतो. धारण करतो व सर्व जीवांना कर्मानुसार जन्म देऊन सर्वांच्या निर्वाहासाठी सर्व पदार्थांना उत्पन्न करतो तोच सर्वांचा उपास्यदेव आहे, हे जाणावे.