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दे॒वं ब॒र्हिः सर॑स्वती सुदे॒वमिन्द्रे॑ऽअ॒श्विना॑। तेजो॒ न चक्षु॑र॒क्ष्यो᳖र्ब॒र्हिषा॑ दधुरिन्द्रि॒यं वसु॒॑वने॑ वसु॒धेय॑स्य व्यन्तु॒ यज॑ ॥४८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दे॒वम्। ब॒र्हिः। सर॑स्वती। सु॒दे॒वमिति॑ सुऽदे॒वम्। इन्द्रे॑। अ॒श्विना॑। तेजः॑। न। चक्षुः॑। अ॒क्ष्योः᳖। ब॒र्हिषा॑। द॒धुः॒। इ॒न्द्रि॒यम्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। व्य॒न्तु॒। यज॑ ॥४८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:48


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वान् कैसे अपना वर्त्ताव वर्त्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे (सरस्वती) प्रशंसित विज्ञानयुक्त स्त्री (इन्द्रे) परमैश्वर्य के निमित्त (देवम्) दिव्य (सुदेवम्) सुन्दर विद्वान् पति की (बर्हिः) अन्तरिक्ष (अश्विना) पढ़ाने और उपदेश करनेवाले तथा (चक्षुः) आँख के (तेजः) तेज के (न) समान (यज) प्रशंसा वा सङ्गति करती है और जैसे विद्वान् जन (वसुधेयस्य) जिस में धन धारण करने योग्य हो, उस व्यवहार सम्बन्धी (वसुवने) धन की प्राप्ति कराने के लिए (अक्ष्योः) आँखों के (बर्हिषा) अन्तरिक्ष अवकाश से अर्थात् दृष्टि से देख के (इन्द्रियम्) उक्त धन को (दधुः) धारण करते और (व्यन्तु) प्राप्त होते हैं, वैसे इसको तू धारण कर ॥४८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो ! जैसे विदुषी ब्रह्मचारिणी कुमारी कन्या अपने लिए मनोहर पति को पाकर आनन्द करती है, वैसे विद्या और संसार के पदार्थ का बोध पाकर तुम लोगों को भी आनन्दित होना चाहिए ॥४८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वांसः कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

(देवम्) दिव्यम् (बर्हिः) अन्तरिक्षम् (सरस्वती) प्रशस्तविज्ञानयुक्ता स्त्री (सुदेवम्) शोभनं विद्वांसम् (इन्द्रे) परमैश्वर्य्ये (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (तेजः) (न) इव (चक्षुः) नेत्रम् (अक्ष्योः) अक्ष्णोः (बर्हिषा) अन्तरिक्षेण (दधुः) (इन्द्रियम्) धनम् (वसुवने) धनप्रापणाय (वसुधेयस्य) वसुधेयं यस्मिंस्तस्य (व्यन्तु) प्राप्नुवन्तु (यज) यजते ॥४८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथा सरस्वतीन्द्रे देवं सुदेवं बर्हिरश्विना चक्षुस्तेजो न यज यथा च विद्वांसो वसुधेयस्य वसुवनेऽक्ष्योर्बर्हिषेन्द्रियं दधुर्व्यन्तु च तथैतत्त्वं धेहि प्राप्नुहि च ॥४८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे मनुष्याः ! यथा विदुषी ब्रह्मचारिणी कुमारी स्वार्थं हृद्यं पतिं प्राप्यानन्दति तथा विद्यासृष्टिपदार्थबोधं प्राप्य भवद्भिरप्यानन्दितव्यम् ॥४८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जशी विदुषी ब्रह्मचारिणी कुमारी कन्या स्वतःसाठी सुंदर पती प्राप्त करून आनंदी होते. तसे विद्या व जगातील पदार्थांचा बोध करून घेऊन तुम्हीही आनंदित व्हा.