वांछित मन्त्र चुनें

स त्वं नो॑ऽअग्नेऽव॒मो भ॑वो॒ती नेदि॑ष्ठोऽअ॒स्याऽउ॒षसो॒ व्युष्टौ। अव॑ यक्ष्व नो॒ वरु॑ण॒ꣳ ररा॑णो वी॒हि मृ॑डी॒कꣳ सु॒हवो॑ नऽएधि ॥४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। त्वम्। नः॒। अ॒ग्ने॒। अ॒व॒मः। भ॒व॒। ऊ॒ती। नेदि॑ष्ठः। अ॒स्याः। उ॒षसः॑। व्यु॑ष्टा॒विति॒ विऽउ॑ष्टौ। अव॑। य॒क्ष्व॒। नः॒। वरु॑णम्। ररा॑णः। वी॒हि। मृ॒डी॒कम्। सु॒हव॒ इति॑ सु॒ऽहवः॑। नः॒। ए॒धि॒ ॥४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:21» मन्त्र:4


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के समान विद्वान् ! जैसे (अस्याः) इस (उषसः) प्रभात समय के (व्युष्टौ) नाना प्रकार के दाह में अग्नि (नेदिष्ठः) अत्यन्त समीप और रक्षा करने हारा है, वैसे (सः) वह (त्वम्) तू (ऊती) प्रीति से (नः) हमारा (अवमः) रक्षा करने हारा (भव) हो (नः) हम को (वरुणम्) उत्तम गुण वा उत्तम विद्वान् वा उत्तम गुणीजन का (अव, यक्ष्व) मेल कराओ और (रराणः) रमण करते हुए तुम (मृडीकम्) सुख देने हारे को (वीहि) व्याप्त होओ (नः) हम को (सुहवः) शुभदान देनेहारे (एधि) हूजिये ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्रातः समय में सूर्य समीप स्थित हो के साथ सब समीप के मूर्त्त पदार्थों को व्याप्त होता है, वैसे शिष्यों के समीप अध्यापक हो के इनको अपनी विद्या से व्याप्त करे ॥४ ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(सः) (त्वम्) (नः) अस्माकम् (अग्ने) (अवमः) रक्षकः (भव) (ऊती) ऊत्या (नेदिष्ठः) अतिशयेनान्तिकः (अस्याः) (उषसः) प्रत्यूषवेलायाः (व्युष्टौ) विविधे दाहे (अव) (यक्ष्व) सङ्गमय। अत्र बहुलं छन्दसीति विकरणाभावः (नः) अस्माकम् (वरुणम्) उत्तमम् (रराणः) रममाणः (वीहि) व्याप्नुहि (मृडीकम्) सुखप्रदम् (सुहवः) शोभनो हवो दानं यस्य सः (नः) अस्मान् (एधि) भव ॥४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! यथाऽस्या उषसो व्युष्टौ वह्निर्नेदिष्ठो रक्षकश्च भवति तथा स त्वमूती नोऽवमो भव नो वरुणमवयक्ष्व रराणः सन् मृडीकं वीहि नः सुहव एधि ॥४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा प्रातःसमये सूर्यः सन्निहितः सन् सर्वान् सन्निहितान् मूर्त्तान् पदार्थान् व्याप्नोति तथाऽन्तेवासिनां सन्निधावध्यापको भूत्वैतानात्मनो विद्यया व्याप्नुयात्॥४ ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे प्रातःकाळी सूर्यामुळे सर्व पदार्थ प्रकाशित होतात तसे अध्यापकाने आपल्या शिष्यांना विद्येने प्रकाशित करावे.