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स्व॒यं॒भूर॑सि॒ श्रेष्ठो॑ र॒श्मिर्व॑र्चो॒दाऽअ॑सि॒ वर्चो॑ मे देहि। सूर्य॑स्या॒वृत॒मन्वाव॑र्ते ॥२६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्व॒यं॒भूरिति॑ स्वय॒म्ऽभूः। अ॒सि॒। श्रेष्ठः॑। र॒श्मिः। व॒र्चो॒दा इति॑ वर्चः॒ऽदाः। अ॒सि॒। वर्चः॑। मे॒। दे॒हि॒। सूर्य्य॑स्य। आ॒वृत॒मित्या॒ऽवृत॑म्। अनु॑। आ। व॒र्त्ते॒ ॥२६॥

यजुर्वेद » अध्याय:2» मन्त्र:26


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में सूर्य्य शब्द से ईश्वर और विद्वान् मनुष्य का उपदेश किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! आप विद्वन् वा (श्रेष्ठः) अत्यन्त प्रशंसनीय और (रश्मिः) प्रकाशमान वा (स्वयंभूः) अपने आप होनेवाले (असि) हैं तथा (वर्चोदाः) विद्या देनेवाले (असि) हैं, इसी से आप (मे) मुझे (वर्चः) विज्ञान और प्रकाश (देहि) दीजिये, मैं (सूर्य्यस्य) जो आप चराचर जगत् के आत्मा हैं, उनके (आवृतम्) निरन्तर सज्जन जन जिसमें वर्त्तमान होते हैं, उस उपदेश को (अन्वावर्ते) स्वीकार करके वर्त्तता हूँ ॥२६॥
भावार्थभाषाः - परमेश्वर और [विद्वान्] जीव का कोई माता वा पिता नहीं है, किन्तु यही सब का माता पिता है तथा जिससे बढ़ कर कोई विज्ञानप्रकाशक विद्या देनेवाला नहीं है। जैसे सब मनुष्यों को इस परमेश्वर ही की आज्ञा में वर्त्तमान होना चाहिये, वैसे ही जो विद्वान् भी प्रकाशवाले पदार्थों में अवधिरूप और व्यवहारविद्या का हेतु है, जिस के उपदेशरूप प्रकाश को प्राप्त होकर प्रकाशित होते हैं, वह क्यों न सेवना चाहिये ॥२६॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सूर्य्यशब्देनेश्वरविद्वदर्थावुपदिश्येते ॥

अन्वय:

(स्वयंभूः) स्वयं भवत्यनादिस्वरूपः (असि) अस्ति वा (श्रेष्ठः) अतिशयेन प्रशस्तः (रश्मिः) प्रकाशकः प्रकाशमयो वा (वर्चोदाः) वर्चो विद्यां दीप्तिं वा ददातीति (असि) भवसि (वर्चः) विज्ञानं प्रकाशनं वा (मे) मह्यम् (देहि) ददाति वा। (सूर्य्यस्य) चराचरस्यात्मनो जगदीश्वरस्य विदुषो जीवस्य वा ‘सूर्य्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च’ (यजु०७.४२) अनेनेश्वरस्य ग्रहणम्। सूर्य इति पदनामसु पठितम् (निघं०५.६) इति गत्यर्थेन ज्ञानरूपत्वादीश्वरो व्यवहारप्रापकत्वाद् विद्वानेवाऽत्र गृह्यते (आवृतम्) समन्ताद् वर्त्तन्ते यस्मिन् तमीश्वराज्ञापालनमुपदेशप्रकाशनं वा (अनु) पश्चादर्थे (आ) अभ्यर्थे (वर्त्ते) स्पष्टार्थः ॥ अयं मन्त्रः (शत०१.९.३.१५-१७) व्याख्यातः ॥२६॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! विद्वन्वा त्वं श्रेष्ठो रश्मिः स्वयंभूरसि, वर्च्चोदा असि, त्वं मे वर्च्चो देहि। अहं सूर्य्यस्य तवावृतमाज्ञापालनमन्वावर्त्ते ॥२६॥
भावार्थभाषाः - नैव परमेश्वरस्य विदुषो जीवस्य वा कौचिन्मातापितरौ कदाचित् स्तः किंत्वयमेव सर्वस्य माता पिता चास्ति। तथा नैतस्मात् कश्चिदुत्तमः प्रकाशहेतुर्विद्याप्रदो वा पदार्थोऽस्ति। अतः सर्वैर्मनुष्यैरस्यैवाज्ञायामनुवर्त्तनीयम् ॥२६॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - परमेश्वर व विद्वानांचा कोणी माता-पिता नसतो. तर तेच सर्वांचे माता-पिता असतात. त्यांच्यापेक्षा जास्त विज्ञानयुक्त अशी विद्या देणारा कोणीही नसतो.
टिप्पणी: सर्व माणसांनी परमेश्वराच्या आज्ञेचेच पालन केले पाहिजे. तसेच जे विद्वान पदार्थांची व व्यवहाराची विद्या शिकवितात तेही परमेश्वराचे उपदेशरूपी ज्ञान प्राप्त करून स्वतः प्रकाशित होतात. तेव्हा त्या परमेश्वराचा अंगीकार करणे योग्य नव्हे काय?