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घृ॒ताची॑ स्थो॒ धुर्यौ॑ पातꣳ सु॒म्ने स्थः॑ सु॒म्ने मा॑ धत्तम्। य॒ज्ञ नम॑श्च त॒ऽउप॑ च य॒ज्ञस्य॑ शि॒वे सन्ति॑ष्ठस्व॒ स्वि᳖ष्टे॒ मे॒ संति॑ष्ठस्व ॥१९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

घृ॒ताची॑। स्थः॒। धुर्य्यौ॑। पा॒त॒म्। सु॒म्ने। स्थः॒। सु॒म्ने। मा॒। ध॒त्त॒म्। यज्ञ॑। नमः॑। च॒। ते॒। उप॑। च॒। य॒ज्ञस्य॑। शिवे॑। सम्। ति॒ष्ठ॒स्व॒। स्विष्टे॒ इति॑ सुऽइ॑ष्टे। मे॒। सम्। ति॒ष्ठ॒स्व॒ ॥१९॥

यजुर्वेद » अध्याय:2» मन्त्र:19


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब उक्त यज्ञ से क्या होता है, सो अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो अग्नि और वायु (धुर्य्यौ) यज्ञ के मुख्य अङ्ग को प्राप्त करानेवाले (च) और (सुम्ने) सुखरूप (स्थ) हैं तथा (घृताची) जल को प्राप्त करानेवाली क्रियाओं को कराने हारे (स्थः) हैं और सब जगत् को (पातम्) पालते हैं, वे मुझ से अच्छी प्रकार उत्तम-उत्तम क्रिया-कुशलता में युक्त हुए (मा) मुझे, यज्ञ करानेवाले को (सुम्ने) सुख में (धत्तम्) स्थापन करते हैं। जैसे यह (यज्ञ) जगदीश्वर (च) और (नमः) नम्र होना (ते) तेरे लिये (शिवे) कल्याण में (उपसंतिष्ठस्व) समीप स्थित होते हैं, वे वैसे ही (मे) मेरे लिये भी स्थित होते हैं, इस कारण जैसे मैं (यज्ञस्य) यज्ञ का अनुष्ठान करके (सुम्ने) सुख में स्थित होता हूँ, वैसे तुम भी उस में (संतिष्ठस्व) स्थित होओ ॥१९॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। ईश्वर कहता है कि हे मनुष्यो ! रस के परमाणु करने, जगत् के पालन के निमित्त सुख करने, क्रियाकाण्ड के हेतु और ऊपर को तथा टेढ़े वा सूधे जानेवाले अग्नि और वायु के गुणों से कार्य्यों को सिद्ध करो। इस से तुम लोग सुखों में अच्छी प्रकार स्थिर हो तथा मेरी आज्ञा पालो और मुझ को ही बार-बार नमस्कार करो ॥१९॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथोक्तेन यज्ञेन किं भवतीत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(घृताची) घृतमुदकमञ्चत इति घृताची अग्निवाय्वोर्धारणाकर्षणक्रिये। अत्र पूर्वसवर्णादेशः घृतमित्युदकनामसु पठितम् (निघं०१.१२) (स्थः) स्तः। अत्र सर्वत्र पुरुषव्यत्ययः (धुर्य्यौ) धुरं यज्ञस्याग्रं मुख्याङ्गं वहतस्तौ। अत्र धुरो यड्ढकौ (अष्टा०४.४.७७) इति यत् प्रत्ययः (पातम्) रक्षतः (सुम्ने) सुखकारिके उक्ते क्रिये। सुम्नमिति सुखनामसु पठितम् (निघं०३.६) (स्थः) भवतः (सुम्ने) अत्युत्कृष्टे सुखे (मा) मां यज्ञानुष्ठातारम् (धत्तम्) धारयतः। (यज्ञ) इज्यते सर्वैर्जनैः स यज्ञ ईश्वरस्तत्सम्बुद्धौ, क्रियासाध्यो वा, अत्रान्त्ये पक्षे सुपां सुलुक् [अष्टा०७.१.३९] इति सोर्लुक् (नमः) नम्रीभावार्थे (च) समुच्चये (ते) तुभ्यं तस्य वा (उप) सामीप्ये क्रियायोगे। उपेत्युपजनं प्राह (निरु०१.३) (च) पश्चादर्थे (यज्ञस्य) ज्ञानक्रियाभ्यामनुष्ठेयस्य (शिवे) कल्याणसाधिके ॥ सर्वनिघृष्व० (उणा०१.१५३) इत्ययं सिद्धः (संतिष्ठस्व) संतिष्ठते। अत्र लडर्थे लोट् (स्विष्टे) शोभनमिष्टं याभ्यां ते (मे) मम (संतिष्ठस्व) सुष्ठुसाधने स्थिरो भव, संतिष्ठो वा ॥ अयं मन्त्रः (शत०१.८.३.२७) व्याख्यातः ॥१९॥

पदार्थान्वयभाषाः - यावग्निवायू यज्ञस्य धुर्य्ये सुम्ने स्थो घृताची स्थः सर्वं जगत् पातं रक्षतस्तौ मया सम्यक् प्रयोजितौ सुम्ने सुखे मा मां धत्तं धारयतः। यज्ञो नमश्च ये यथा ते तव शिवे उपसंतिष्ठेते मे ममाप्येते तथैव संतिष्ठेताम्। तस्माद् यथाहं तस्य यज्ञस्यानुष्ठाने संतिष्ठे तथा त्वमप्यत्र संतिष्ठस्व। यथाऽहं यज्ञमनुष्ठाय सुखे संतिष्ठे तथा त्वमपि तत्र संतिष्ठस्व ॥१९॥
भावार्थभाषाः - अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। ईश्वरोऽभिवदति हे मनुष्या ! यूयमेतयोरसच्छेदकधारकयोर्जगत्पालनहेत्वोः सुखकारिणोः क्रियाकाण्डस्य निमित्तयोरूर्ध्वतिर्य्यग्गमनशीलयोरग्निवाय्वोः सकाशात् कार्य्याणि साधित्वा सुखेषु संस्थितिं कुरुत, मदाज्ञापालनं मां च सततं नमस्कुरुत। पूर्वमन्त्रोक्तैरुपकारैः परमं सुखं भवतीत्यनेनोक्तमिति ॥१९॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. ईश्वर म्हणतो की, हे माणसांनो ! रसाचे परमाणू करणे, जगाचे पालन करून सुख देणे, कार्य सिद्ध करणे, वक्र किंवा सरळ वर जाणे असे अग्नी व वायूचे गुण जाणून कार्य सिद्ध करा व स्थिर सुख प्राप्त करा. तसेच माझ्या आज्ञेचे पालन करून नम्रतेने वारंवार मला नमन करा.