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अ॒ग्नीषोम॑यो॒रुज्जि॑ति॒मनूज्जे॑षं॒ वाज॑स्य मा प्रस॒वेन॒ प्रोहा॑मि। अ॒ग्नीषोमौ॒ तमप॑नुदतां॒ यो᳕ऽस्मान् द्वेष्टि॒ यं च॑ व॒यं द्वि॒ष्मो वाज॑स्यैनं प्रस॒वेनापो॑हामि। इ॒न्द्रा॒ग्न्योरुज्जि॑ति॒मनूज्जे॑षं॒ वाज॑स्य मा प्रस॒वेन॒ प्रोहा॑मि। इ॒न्द्रा॒ग्नी तमप॑नुदतां॒ यो᳕ऽस्मान् द्वेष्टि॒ यं च॑ व॒यं द्वि॒ष्मो वाज॑स्यैनं प्रस॒वेनापो॑हामि ॥१५॥

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पद पाठ

अ॒ग्नीषोम॑योः। उज्जि॑ति॒मित्युत्ऽजि॑तिम्। अनु॑। उत्। जे॒ष॒म्। वाज॑स्य। मा॒ प्र॒स॒वेनेति॑ प्रऽस॒वेन॑। प्र। ऊ॒हा॒मि॒। अ॒ग्नीषोमौ॑। तम्। अप॑। नु॒द॒ता॒म्। यः। अ॒स्मान्। द्वेष्टि॑। यम्। च॒। व॒यम्। द्वि॒ष्मः। वाज॑स्य। ए॒न॒म्। प्र॒स॒वेनेति॑ प्रऽस॒वेन॑। अप॑। ऊ॒हा॒मि। इ॒न्द्रा॒ग्न्योः। उज्जि॑ति॒मित्युत्ऽजि॑तिम्। अनु॑। उत्। जे॒ष॒म्। वाज॑स्य। मा। प्र॒स॒वेनेति॑ प्रऽस॒वेन॑। प्र। ऊ॒हा॒मि॒। इ॒न्द्रा॒ग्नीऽइती॑न्द्रा॒ग्नी। तम्। अप॑। नु॒द॒ता॒म्। यः। अ॒स्मान्। द्वेष्टि॑। यम्। च॒। व॒यम्। द्वि॒ष्मः। वाज॑स्य। ए॒न॒म्। प्र॒स॒वेनेति॑ प्रऽस॒वेन॑। अप॑। ऊ॒हा॒मि॒ ॥१५॥

यजुर्वेद » अध्याय:2» मन्त्र:15


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब उस यज्ञ से क्या क्या दूर करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - मैं (अग्नीषोमयोः) प्रसिद्ध भौतिक अग्नि और चन्द्रलोक के (उज्जितिम्) दुःख के सहने योग्य शत्रुओं को (अनूज्जेषम्) यथाक्रम से जीतूँ और (वाजस्य) युद्ध के (प्रसवेन) उत्पादन से विजय करनेवाले (मा) अपने आप को (प्रोहामि) अच्छी प्रकार शुद्ध तर्कों से युक्त करूँ। जो मुझ से अच्छी प्रकार विद्या से क्रियाकुशलता में युक्त किये हुए (अग्नीषोमौ) उक्त अग्नि और चन्द्रलोक हैं, वे (यः) जो कि अन्याय में वर्त्तनेवाला दुष्ट मनुष्य (अस्मान्) न्याय करनेवाले हम लोगों को (द्वेष्टि) शत्रुभाव से वर्त्तता है (यं च) और जिस अन्याय करनेवाले से (वयम्) न्यायाधीश हम लोग (द्विष्मः) विरोध करते हैं, (तम्) उस शत्रु वा रोग को (अपनुदताम्) दूर करते हैं और मैं भी (एनम्) इस दुष्ट शत्रु को (वाजस्य) यान वेगादि गुणों से युक्त सेनावाले संग्राम की (प्रसवेन) अच्छी प्रकार प्रेरणा से (अपोहामि) दूर करता हूँ। मैं (इन्द्राग्न्योः) वायु और विद्युत् रूप अग्नि की (उज्जितिम्) विद्या से अच्छी प्रकार उत्कर्ष को (अनूज्जेषम्) अनुक्रम से प्राप्त होऊँ और मैं (वाजस्य) ज्ञान की प्रेरणा के द्वारा वेग की प्राप्ति के (प्रसवेन) ऐश्वर्य्य के अर्थ उत्पादन से वायु और बिजुली की विद्या के जाननेवाले (माम्) अपने आप को नित्य (प्रोहामि) अच्छी प्रकार तर्कों से सुखों को प्राप्त होता हूँ और मुझ से जो अच्छे प्रकार सिद्ध किये हुए (इन्द्राग्नी) वायु और विद्युत् अग्नि हैं, वह (यः) जो मूर्ख मनुष्य (अस्मान्) हम विद्वान् लोगों से (द्वेष्टि) अप्रीति से वर्त्तता है (च) और (यम्) जिस मूर्ख से (वयम्) हम विद्वान् लोग (द्विष्मः) अप्रीति से वर्तते हैं (तम्) उस वैर करनेवाले मूढ़ को (अपनुदताम्) दूर करते हैं तथा मैं भी (एनम्) इसे (वाजस्य) विज्ञान के (प्रसवेन) प्रकाश से (अपोहामि) अच्छी-अच्छी शिक्षा दे कर शुद्ध करता हूँ ॥१५॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर उपदेश करता है कि सब मनुष्यों को विद्या और युक्तियों से अग्नि और जल के मेल से कलाओं की कुशलता करके वेगादि गुणों के प्रकाश से तथा वायु और विद्युत् अग्नि की विद्या से सब दरिद्रता के विनाश और शत्रुओं के पराजय से श्रेष्ठ शिक्षा देकर अज्ञान को दूर कर और उन मूढ़ मनुष्यों को विद्वान् करके अनेक प्रकार के सुख इस संसार में सिद्ध करने योग्य और औरों को सिद्ध कराने के योग्य हैं। इस प्रकार अच्छे प्रयत्न से सब पदार्थविद्या संसार में प्रकाशित करनी योग्य है। पूर्व मन्त्र में जो कार्य प्रकाश किया, उसकी पुष्टि इस मन्त्र से की है ॥१५॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ तेन किं किं दूरीकर्त्तव्यमित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(अग्नीषोमयोः) अग्निश्च सोमश्च तयोः प्रसिद्धाग्निचन्द्रलोकयोः। अत्र ईदग्नेः सोमवरुणयोः (अष्टा०६.३.२७) अनेन देवताद्वन्द्वसमासेऽग्नेरीकारादेशः (उज्जितिम्) जयत्यनया सा जितिरुत्कृष्टा चासौ जितिश्च तामुत्कृष्टं विजयम् (अनु) पश्चाद्भावे (उत्) उत्कृष्टार्थे (जेषम्) जयं कुर्य्याम्। अत्र लिङर्थे लुङडभावो वृद्ध्यभावश्च (वाजस्य) युद्धस्य (मा) मां विजेतारम् (प्रसवेन) उत्पादनेन प्रकृष्टैश्वर्य्येण सह वा (प्रोहामि) प्रकृष्टतया विविधशुद्धतर्केण योजयामि (अग्नीषोमौ) विद्यया सम्यक् प्रयोजितौ (तम्) शत्रुं रोगं वा (अप) दूरीकरणे (नुदताम्) प्रेरयतः। अत्र लडर्थे लोट् (यः) अन्यायकारी (अस्मान्) न्यायकारिणः (द्वेष्टि) शत्रूयति (यम्) अन्यायकारिणम् (च) समुच्चये (वयम्) न्यायाधीशाः (द्विष्मः) विरुध्यामः (वाजस्य) यानवेगादियुक्तस्य सैन्यस्य (एनम्) पूर्वोक्तं दुष्टम् (प्रसवेन) प्रकृष्टतया युद्धविद्याप्रेरणेन (अप) दूरीकरणे (ऊहामि) विविधतर्केण क्षिपामि (इन्द्राग्न्योः) इन्द्रो वायुरग्निर्विद्युत्तयोः (उज्जितिम्) विद्यया सम्यगुत्कर्षम् (अनूज्जेषम्) अनुगतमुत्कर्षं प्राप्नुयाम्। अस्य सिद्धिः पूर्ववत् (वाजस्य) प्रेरणाप्रेरणवेगप्राप्तेः (मा) मां वायुविद्युद्विद्याप्राप्तम् (प्रसवेन) ऐश्वर्यार्थमुत्पादितेन (प्रोहामि) प्रकृष्टैर्विविधैस्तर्कैः सुखानि प्राप्नोमि (इन्द्राग्नी) पूर्वोक्तौ सम्यक् साधितौ (तम्) द्वेषस्वभावम् (अप) निषेधार्थे (नुदताम्) प्रेरयतः। अत्र लडर्थे लोट् (यः) अविद्वान् (अस्मान्) विदुषः (द्वेष्टि) अप्रीतयति (यम्) दुष्टस्वभावम् (च) समुच्चयार्थे (वयम्) विद्वांसः (द्विष्मः) अप्रीतयामः (वाजस्य) विज्ञानस्य (एनम्) मूर्खम् (प्रसवेन) उत्पादनेन (अप) वर्जने (ऊहामि) विविधां शिक्षां करोमि ॥ अयं मन्त्रः (शत०१.८.३.१-६) व्याख्यातः ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - अहमग्नीषोमयोरुज्जितिमनूज्जेषमहं वाजस्य प्रसवेन मा मां प्रोहामि, मया सम्यक् साधितावग्नीषोमौ योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मस्तमपनुदतः। अहमेनं वाजस्य प्रसवेनापोहामि। अहमिन्द्राग्न्योरुज्जितिमनूज्जेषमहं वाजस्य प्रसवेन मा मां नित्यं प्रोहामि। अस्माभिः सम्यक् साधिताविन्द्राग्नी योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मस्तमपनुदतः। अहं वाजस्य प्रसवेनैनमपोहामि ॥१५॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर उपदिशति सर्वैर्मनुष्यैरिह विद्यायुक्तिभ्यामग्निजलयोर्मेलनेन कलाकौशलाद् वेगादिगुणानां प्रकाशेन तथा वायुविद्युतोर्विद्ययातो सर्वदारिद्र्यनाशेन शत्रूणां विजयेन सुशिक्षया मनुष्याणां मूढत्वं दूरीकृत्य विद्वत्त्वं प्रापय्य च विविधानि सुखानि प्राप्तव्यानि प्रापयितव्यानि चैवं सम्यक् सर्वाः पदार्थविद्या जगति प्रकाशनीयाः। पूर्वेण मन्त्रेण यत्कार्य्यं प्रकाशितं तदनेन पोषितम् ॥१५॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ईश्वर असा उपदेश करतो की, सर्व माणसांनी अग्नी व जल यांचा विद्या व युक्तीने संयोग करून कुशलतापूर्वक गती, वायू, विद्युत व अग्नी यांच्यासंबंधीची विद्या जाणून दारिद्र्याचा नाश केला पाहिजे. शत्रूंचा पराजय करून त्यांचे अज्ञान दूर करून त्यांना उत्तम शिक्षण दिले पाहिजे. मूढ लोकांना विद्वान केले पाहिजे. याप्रमाणे अनेक प्रकारचे सुख या जगात सिद्ध करण्याजोगे आहे व इतरांनाही सिद्ध करावयास लावण्याजोगे आहे. यासाठी सर्व पदार्थविद्या जगात प्रयत्नपूर्वक प्रकट केली पाहिजे. पूर्वीच्या मंत्रात ज्या कार्याचे वर्णन केलेले आहे त्याचेच समर्थन या मंत्रात केलेले आहे.