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धाम॑न्ते॒ विश्वं॒ भुव॑न॒मधि॑ श्रि॒तम॒न्तः स॑मु॒द्रे हृ॒द्य᳕न्तरायु॑षि। अ॒पामनी॑के समि॒थे यऽआभृ॑त॒स्तम॑श्याम॒ मधु॑मन्तं तऽऊ॒र्मिम् ॥९९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

धाम॑न्। ते॒। विश्व॑म्। भुव॑नम्। अधि॑। श्रि॒तम्। अ॒न्तरित्य॒न्तः। स॒मु॒द्रे। हृ॒दि। अ॒न्तरित्य॒न्तः। आयु॑षि। अ॒पाम्। अनी॑के। स॒मि॒थ इति॑ सम्ऽइ॒थे। यः। आभृ॑त॒ इत्याऽभृ॑तः। तम्। अ॒श्या॒म॒। मधु॑मन्त॒मिति॒ मधु॑ऽमन्तम्। ते॒। ऊ॒र्मिम् ॥९९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:99


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब ईश्वर और राजा का विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश्वर ! जिस (ते) आपके (धामन्) जिसमें कि समस्त पदार्थों को आप धरते हैं (अन्तः, समुद्रे) उस आकाश के तुल्य सब के बीच व्याप्तस्वरूप में (विश्वम्) सब (भुवनम्) प्राणियों की उत्पत्ति का स्थान संसार (अधि, श्रितम्) आश्रित होके स्थित है, उसको हम लोग (अश्याम) प्राप्त होवें। हे सभापते ! (ते) तेरे (अपाम्) प्राणों के (अन्तः) बीच (हृदि) हृदय में तथा (आयुषि) जीवन के हेतु प्राणधारियों के (अनीके) सेना और (समिथे) संग्राम में (यः) जो भार (आभृतः) भलीभाँति धरा है, (तम्) उसको तथा (मधुमन्तम्) प्रशंसायुक्त मधुर गुणों से भरे हुए (ऊर्मिम्) बोध को हम लोग प्राप्त होवें ॥९९ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि जगदीश्वर की सृष्टि में परम प्रयत्न से मित्रों की उन्नति करें और समस्त सामग्री को धारण करके यथायोग्य आहार और विहार अर्थात् परिश्रम से शरीर की आरोग्यता का विस्तार कर अपना और पराया उपकार करें ॥९९ ॥ इस अध्याय में सूर्य, मेघ, गृहाश्रम और गणित की विद्या तथा ईश्वर आदि की पदार्थविद्या के वर्णन से इस अध्याय के अर्थ की पिछले अध्याय के अर्थ के साथ एकता है, यह समझना चाहिये ॥ इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां श्रीमत्परमविदुषां विरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां शिष्येण दयानदसरस्वतीस्वामिना विरचिते संस्कृतार्य्यभाषाभ्यां विभूषिते सुप्रमाणयुक्ते यजुर्वेदभाष्ये सप्तदशोऽध्यायः समाप्तः ॥१७॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथेश्वरराजविषयमाह ॥

अन्वय:

(धामन्) दधाति यस्मिंस्तस्मिन् (ते) तव (विश्वम्) सर्वम् (भुवनम्) भवन्ति भूतानि यस्मिन् (अधि) (श्रितम्) (अन्तः) मध्ये (समुद्रे) आकाशमिव व्याप्तस्वरूपे (हृदि) हृदये (अन्तः) मध्ये (आयुषि) जीवनहेतौ (अपाम्) प्राणानाम् (अनीके) सैन्ये (समिथे) संग्रामे (यः) संभारः (आभृतः) समन्ताद्धृतः (तम्) (अश्याम) प्राप्नुयाम (मधुमन्तम्) प्रशस्तमधुरादिगुणोपेतम् (ते) तव (ऊर्मिम्) बोधम् ॥९९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे जगदीश ! यस्य ते धामन्नन्तः समुद्रे विश्वं भुवनाधिश्रितं तद्वयमश्याम। हे सभापते ! तेऽपामन्तर्हृद्यायुष्यपामनीके समिथे यः सम्भार आभृतस्तं मधुमन्तमूर्मिं च वयमश्याम ॥९९ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्जगदीश्वरसृष्टौ परमप्रयत्नेन सख्युन्नतिः कार्या, सर्वाः साम्रगीर्धृत्वा युक्ताहारविहारेण शरीरारोग्यं संतत्य स्वेषामन्येषां चोपकारः कार्य इति शम् ॥९९ ॥ अत्र सूर्यमेघगृहाश्रमगणितविद्येश्वरादिपदार्थविद्यावर्णनादेतदध्यायोक्तार्थस्य पूर्वाध्यायोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोद्धव्यमिति ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी या ईश्वरी सृष्टीत अत्यंत प्रयत्नपूर्वक सर्वांची उन्नती करावी. सर्व साधन सामग्री बाळगून यथायोग्य आहार, विहार करावा. परिश्रमाने शरीराचे आरोग्य वाढवावे व इतरांवरही उपकार करावा.