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इ॒मꣳ स्तन॒मूर्ज॑स्वन्तं धया॒पां प्रपी॑नमग्ने सरि॒रस्य॒ मध्ये॑। उत्सं॑ जुषस्व॒ मधु॑मन्तमर्वन्त्समु॒द्रिय॒ꣳ सद॑न॒मावि॑शस्व ॥८७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒मम्। स्तन॑म्। ऊर्ज॑स्वन्तम्। ध॒य॒। अ॒पाम्। प्रपी॑न॒मिति॒ प्रऽपी॑नम्। अ॒ग्ने॒। स॒रि॒रस्य॑। मध्ये॑। उत्स॑म्। जु॒ष॒स्व॒। मधु॑मन्त॒मिति॒ मधु॑ऽमन्तम्। अ॒र्व॒न्। स॒मु॒द्रिय॑म्। सद॑नम्। आ। वि॒श॒स्व॒ ॥८७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:87


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान पुरुष ! तू (प्रपीनम्) अच्छे दूध से भरे हुए (स्तनम्) स्तन के समान (इमम्) इस (ऊर्जस्वन्तम्) प्रशंसित बल करते हुए (अपाम्) जलों के रस को (धय) पी (सरिरस्य) बहुतों के (मध्ये) बीच में (मधुमन्तम्) प्रशंसित मधुरतादि गुणयुक्त (उत्सम्) जिससे पदार्थ गीले होते हैं, उस कूप को (जुषस्व) सेवन कर वा हे (अर्वन्) घोड़ों के समान वर्त्ताव रखनेहारे जन ! तू (समुद्रियम्) समुद्र में हुए स्थान कि (सदनम्) जिसमें जाते हैं, उस में (आ, विशस्व) अच्छे प्रकार प्रवेश कर ॥८७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे बालक और बछड़े स्तन के दूध को पी के बढ़ते हैं, वा जैसे घोड़ा शीघ्र दौड़ता है, वैसे मनुष्य यथायोग्य भोजन और शयनादि आराम से बढ़े हुए वेग से चलें, जैसे जलों से भरे हुए समुद्र के बीच नौका में स्थित होकर जाते हुए सुखपूर्वक पारावार अर्थात् इस पार से उस पार पहुँचते हैं, वैसे ही अच्छे साधनों से व्यवहार के पार और अवार को प्राप्त होवें ॥८७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(इमम्) (स्तनम्) दुग्धाधारम् (ऊर्जस्वन्तम्) प्रशस्तबलकारकम् (धय) पिब (अपाम्) जलानाम् (प्रपीनम्) प्रकृष्टतया स्थूलम् (अग्ने) पावक इव वर्त्तमान (सरिरस्य) बहोः। सरिरमिति बहुनामसु पठितम् ॥ (निघं०३.१) (मध्ये) (उत्सम्) उन्दन्ति येन तं कूपम्। उत्समिति कूपनामसु पठितम् ॥ (निघं०३.२३) (जुषस्व) सेवस्व (मधुमन्तम्) प्रशस्तं मधु माधुर्यं विद्यते यस्मिँस्तम् (अर्वन्) अश्व इव वर्त्तयन् (समुद्रियम्) सागरे भवम् (सदनम्) सीदन्ति गच्छन्ति यत्तत् (आ) (विशस्व) अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम् ॥८७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने ! पालक ! त्वं प्रपीनं स्तनमिवेममूर्जस्वन्तमपां रसं धय, सरिरस्य मध्ये मधुमन्तमुत्सं जुषस्व। हे अर्वंस्त्वं समुद्रियं सदनमाविशस्व ॥८७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा बालका वत्साश्च स्तनदुग्धं पीत्वा वर्द्धन्ते, यथा वाऽश्वः शीघ्रं धावति तथा मनुष्या युक्ताहारविहारेण वर्धमाना वेगेन गच्छन्तु, यथाऽद्भिः पूर्णे समुद्रे नौकायां स्थित्वा गच्छन्तः सुखेन पारावारे यान्ति, तथैव सुसाधनैर्व्यवहारस्य पारावारौ प्राप्नुवन्तु ॥८७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशी लहान मुले व वासरे स्तनाचे दूध पिऊन वाढतात किंवा जसा घोडा वेगाने पळतो तसे माणसाने यथायोग्य भोजन व शयन, विश्रांती घेऊन वेगवान बनावे. समुद्रात नौका जशा स्थित राहून समुद्रापलीकडे सुखपूर्वक पोहोचतात तसे चांगल्या साधनांनी व्यवहाराचे ऐलतीर व पैलतीर गाठावे.