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स॒प्त ते॑ऽअग्ने स॒मिधः॑ स॒प्त जि॒ह्वाः स॒प्तऽऋष॑यः स॒प्त धाम॑ प्रि॒याणि॑। स॒प्त होत्राः॑ सप्त॒धा त्वा॑ यजन्ति स॒प्त योनी॒रापृ॑णस्व घृ॒तेन॒ स्वाहा॑ ॥७९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स॒प्त। ते॒। अ॒ग्ने॒। स॒मिध॒ इति॑ स॒म्ऽइधः॑। स॒प्त। जि॒ह्वाः। स॒प्त। ऋष॑यः। स॒प्त। धाम॑। प्रि॒याणि॑। स॒प्त। होत्राः॑। स॒प्त॒ऽधा। त्वा॒। य॒ज॒न्ति॒। स॒प्त। योनीः॑। आ। पृ॒ण॒स्व॒। घृ॒तेन॑। स्वाहा॑ ॥७९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:79


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) तेजस्वी विद्वन् ! जैसे आग के (सप्त, समिधः) सात जलानेवाले (सप्त, जिह्वाः) वा सात काली कराली आदि लपटरूप जीभ वा (सप्त, ऋषयः) सात प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान, देवदत्त, धनञ्जय वा (सप्त, प्रियाणि, धाम) सात पियारे धाम अर्थात् जन्म, स्थान, नाम, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष वा (सप्त, होत्राः) सात प्रकार के ऋतु-ऋतु में यज्ञ करनेवाले हैं, वैसे (ते) तेरे हों, जैसे विद्वान् उस अग्नि को (सप्तधा) सात प्रकार से (यजन्ति) प्राप्त होते हैं, वैसे (त्वा) तुझको प्राप्त होवें, जैसे यह अग्नि (घृतेन) घी से और (स्वाहा) उत्तम वाणी से (सप्त, योनीः) सात संचयों को सुख से प्राप्त होता है, वैसे तू (आ, पृणस्व) सुख से प्राप्त हो ॥७९ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे र्इंधन से अग्नि बढ़ता है, वैसे विद्या आदि शुभगुणों से समस्त मनुष्य वृद्धि को प्राप्त होवें, जैसे विद्वान् जन अग्नि में घी आदि को होम के जगत् का उपकार करते हैं, वैसे हम लोग भी करें ॥७९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(सप्त) सप्त संख्याकानि गायत्र्यादीनि छन्दांसि (ते) तव (अग्ने) तेजस्विन् विद्वन् (समिधः) प्रदीपकाः (सप्त, जिह्वाः) काल्यादयः सप्तसंख्याका ज्वालाः (सप्त, ऋषयः) प्राणादयः पञ्च देवदत्तधनञ्जयौ च (सप्त, धाम) जन्मनामस्थानधर्मार्थकाममोक्षाख्यानि धामानि (प्रियाणि) (सप्त, होत्राः) सप्त ऋत्विजः (सप्तधा) सप्तभिः प्रकारैः (त्वा) त्वाम् (यजन्ति) संगच्छन्ते (सप्त, योनीः) चितीः (आ) (पृणस्व) सुखी भव (घृतेन) आज्येन (स्वाहा) ॥७९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अग्ने विद्वन् ! यथाग्नेः सप्त समिधः सप्त जिह्वाः सप्तर्षयः सप्त प्रियाणि धाम सप्त होत्राश्च सन्ति, तथा ते तव सन्तु। यथा विद्वांसस्तमग्निं सप्तधा यजन्ति, तथा त्वा यजन्तु। यथाऽयमग्निर्घृतेन स्वाहा सप्त योनीरापृणते तथा त्वमापृणस्व ॥७९ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेन्धनैरग्निर्वर्धते तथा विद्यादिशुभगुणैः सर्वे मनुष्या वर्धन्ताम्। यथा विद्वांसोऽग्नौ घृतादिकं हुत्वा जगदुपकुर्वन्ति, तथा वयमपि कुर्याम ॥७९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्याप्रमाणे इंधनाने अग्नी प्रदीप्त होतो त्याप्रमाणे विद्या इत्यादी शुभ गुणांनी सर्व माणसांची उन्नती व्हावी. जसे विद्वान लोक अग्नीत तुपाची आहुती टाकून जगावर उपकार करतात तसे आपण सर्व लोकांनीही करावे.