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चित्तिं॑ जुहोमि॒ मन॑सा घृ॒तेन॒ यथा॑ दे॒वाऽइ॒हागम॑न् वी॒तिहो॑त्राऽऋता॒वृधः॑। पत्ये॒ विश्व॑स्य॒ भूम॑नो जु॒होमि॑ वि॒श्वक॑र्मणे वि॒श्वाहादा॑भ्यꣳ ह॒विः ॥७८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

चित्ति॑म्। जु॒हो॒मि॒। मन॑सा। घृ॒तेन॑। यथा॑। दे॒वाः। इ॒ह। आ॒गम॒न्नित्या॒गम॑न्। वी॒तिहो॑त्रा॒ इति॑ वी॒तिऽहो॑त्रा। ऋ॒ता॒वृधः॑। ऋ॒त॒वृध॒ इत्यृ॑त॒ऽवृधः॑। पत्ये॑। विश्व॑स्य। भूम॑नः। जु॒होमि॑। वि॒श्वक॑र्मण॒ इति॑ वि॒श्वऽक॑र्मणे। वि॒श्वाहा॑। अदा॑भ्यम्। ह॒विः ॥७८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:78


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यथा) जैसे मैं (मनसा) विज्ञान वा (घृतेन) घी से (चित्तिम्) जिस क्रिया से सञ्चय करते हैं, उसको (जुहोमि) ग्रहण करता हूँ वा जैसे (इह) इस जगत् में (वीतिहोत्राः) सब ओर से प्रकाशमान जिन का यज्ञ है, वे (ऋतावृधः) सत्य से बढ़ते और (देवाः) कामना करते हुए विद्वान् लोग (भूमनः) अनेक रूपवाले (विश्वस्य) समस्त संसार के (विश्वकर्म्मणे) सब के करने योग्य काम को जिसने किया है, उस (पत्ये) पालनेहारे जगदीश्वर के लिये (अदाभ्यम्) नष्ट न करने और (हविः) होमने योग्य सुख करनेवाले पदार्थ का (विश्वाहा) सब दिनों होम करने को (आगमन्) आते हैं और मैं होमने योग्य पदार्थों को (जुहोमि) होमता हूँ, वैसे तुम लोग भी आचरण करो ॥७८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे काष्ठों में चिना हुआ अग्नि घी से बढ़ता है, वैसे मैं विज्ञान से बढ़ूँ वा जैसे ईश्वर की उपासना करनेहारे विद्वान् संसार के कल्याण करने का प्रयत्न करते हैं, वैसे मैं भी यत्न करूँ ॥७८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(चित्तिम्) चिन्वन्ति यया ताम् (जुहोमि) गृह्णामि (मनसा) विज्ञानेन (घृतेन) आज्येन (यथा) (देवाः) कामयमाना विद्वांसः (इह) (आगमन्) आगच्छन्ति (वीतिहोत्राः) वीतिः सर्वतः प्रकाशितो होत्रा यज्ञो येषां ते (ऋतावृधः) ये ऋतेन सत्येन वर्धन्ते। अत्र अन्येषामपि० [अष्टा०६.३.१३७] इति पूर्वपदस्य दीर्घः। (पत्ये) पालकाय (विश्वस्य) समग्रस्य जगतः (भूमनः) बहुरूपस्य (जुहोमि) ददामि (विश्वकर्मणे) विश्वं कर्म क्रियमाणं कृतं येन तस्मै (विश्वाहा) सर्वाणि दिनानि (अदाभ्यम्) अहिंसनीयम् (हविः) होतव्यं शुद्धं सुखकरं द्रव्यम् ॥७८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथाऽहं मनसा घृतेन चित्तिं जुहोमि, यथेह वीतिहोत्रा ऋतावृधो देवा भूमनो विश्वस्य विश्वकर्मणे पत्ये जगदीश्वरायादाभ्यं हविर्विश्वाहा होतुमागमन्नहं हविर्जुहोमि, तथा यूयमप्याचरत ॥७८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा काष्ठचितोऽग्निराज्येन वर्द्धते, तथा विज्ञानेनाहं वर्द्धेयम्, यथेश्वरोपासका विद्वांसश्च जगतः कल्याणाय प्रयतन्ते, तथाहमपि प्रयतेय ॥७८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. समिधेमध्ये असलेला अग्नी जशी तुपाची आहुती दिल्याने वाढतो तसे मी विज्ञानाने उन्नत व्हावे. ईश्वराचे उपासक विद्वान लोक जसे जगाचे कल्याण करण्याचा प्रयत्न करतात तसा मीही करावा.