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अ॒सौ या सेना॑ मरुतः॒ परे॑षाम॒भ्यैति॑ न॒ऽओज॑सा॒ स्पर्द्ध॑माना। तां गू॑हत॒ तम॒साप॑व्रतेन॒ यथा॒मीऽअ॒न्योऽअ॒न्यन्न जा॒नन् ॥४७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒सौ। या। सेना॑। म॒रु॒तः॒। परे॑षाम्। अ॒भि। आ। एति॑। नः॒। ओज॑सा। स्पर्द्ध॑माना। ताम्। गू॒ह॒त॒। तम॑सा। अप॑व्रते॒नेत्यप॑ऽव्रतेन। यथा॑। अ॒मीऽइत्य॒मी। अ॒न्यः। अ॒न्यम्। न। जा॒नन् ॥४७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:47


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मरुतः) ऋतु-ऋतु में यज्ञ करनेवाले विद्वानो ! तुम (या) जो (असौ) वह (परेषाम्) शत्रुओं की (स्पर्द्धमाना) ईर्ष्या करती हुई (सेना) सेना (ओजसा) बल से (नः) हम लोगों के (अभि, आ, एति) सन्मुख सब ओर से प्राप्त होती है, (ताम्) उसको (अपव्रतेन) छेदनरूप कठोर कर्म्म से और (तमसा) तोप आदि शस्त्रों के उठे हुए धूम वा मेघ (या) पहाड़ के आकार जो अस्त्र का धूम होता है, उससे (गूहत) ढाँपो (अमी) ये शत्रुसेनास्थ जन (यथा) जैसे (अन्यः, अन्यम्) परस्पर एक-दूसरे को (न) न (जानन्) जानें, वैसा पराक्रम करो ॥४७ ॥
भावार्थभाषाः - जब युद्ध के लिये प्राप्त हुई शत्रुओं की सेनाओं से युद्ध करे, तब सब ओर से शस्त्र और अस्त्रों के प्रहार से उठी धूम-धूली आदि से उसको ढाँपकर जैसे ये शत्रुजन परस्पर अपने दूसरे को न जानें, वैसा ढंग सेनापति आदि को करना चाहिये ॥४७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(असौ) (या) (सेना) (मरुतः) ऋत्विजो विद्वांसः (परेषाम्) शत्रूणाम् (अभि) आभिमुख्ये (आ) सर्वतः (एति) प्राप्नोति (नः) अस्माकम् (ओजसा) बलेन (स्पर्द्धमाना) ईर्ष्यन्ती (ताम्) (गूहत) संवृणुत (तमसा) अन्धकारेण शतघ्न्यग्न्याद्युत्थधूमेन मेघपर्वताकारेणास्त्रादिधूमेन वा (अपव्रतेन) अनियमेन परुषकर्मणा (यथा) (अमी) (अन्यः) (अन्यम्) (न) निषेधे (जानन्) ॥४७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मरुतः ! यूयं यासौ परेषां स्पर्द्धमाना सेनौजसा नोऽस्मानभ्यैति, तामपव्रतेन तमसा गूहत। अमी शत्रुसेनास्था जना यथा अन्योऽन्यं न जानन् तथा विक्रमध्वम् ॥४७ ॥
भावार्थभाषाः - यदा युद्धाय शत्रुसेनासु प्राप्तासु युद्धमाचरेत्, तदा सर्वतः शस्त्रास्त्रप्रहारोत्थधूमधूल्यादिना ता आच्छाद्य यथैते परस्परमपि न जानीयुस्तथा सेनापत्यादिभिर्विधेयम् ॥४७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जेव्हा युद्ध सुरू होते तेव्हा शत्रूसेनेवर चहूकडून शस्त्रास्त्रांचा मारा करावा. धूर, धूळ यांचे आच्छादन करावे. शत्रू एकमेकांना दिसणार नाहीत अशी युक्ती सेनापतीने योजावी.