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प॒र॒मे॒ष्ठी त्वा॑ सादयतु दि॒वस्पृ॒ष्ठे ज्योति॑ष्मतीम्। विश्व॑स्मै प्रा॒णाया॑पा॒नाय॑ व्या॒नाय॒ विश्वं॒ ज्योति॑र्यच्छ। सूर्य॒स्तेऽधि॑पति॒स्तया॑ दे॒वत॑याऽङ्गिर॒स्वद् ध्रु॒वा सी॑द ॥५८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प॒र॒मे॒ष्ठी। प॒र॒मे॒स्थीति॑ परमे॒ऽस्थी। त्वा॒। सा॒द॒य॒तु॒। दि॒वः। पृ॒ष्ठे। ज्योति॑ष्मतीम्। विश्व॑स्मै। प्रा॒णाय॑। अ॒पा॒नायेत्य॑पऽआ॒नाय॑। व्या॒नायेति॑ विऽआ॒नाय॑। विश्व॑म्। ज्योतिः॑। य॒च्छ॒। सूर्यः॑। ते॒। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। तया॑। दे॒वत॑या। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ध्रु॒वा। सी॒द॒ ॥५८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:58


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

स्त्री को क्या करना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! (परमेष्ठी) महान् आकाश में व्याप्त होकर स्थित परमेश्वर (ज्योतिष्मतीम्) प्रशस्त ज्ञानयुक्त (त्वा) तुझ को (दिवः) प्रकाश के (पृष्ठे) उत्तम भाग में (विश्वस्मै) सब (प्राणाय) प्राण (अपानाय) अपान और (व्यानाय) व्यान आदि की यथार्थ क्रिया होने के लिये (सादयतु) स्थित करे। तू सब स्त्रियों के लिये (विश्वम्) समस्त (ज्योतिः) ज्ञान के प्रकाश को (यच्छ) दिया कर, जिस (ते) तेरा (सूर्यः) सूर्य के समान तेजस्वी (अधिपतिः) स्वामी है, (तया) उस (देवतया) अच्छे गुणोंवाले पति के साथ वर्त्तमान (अङ्गिरस्वत्) सूर्य्य के समान (ध्रुवा) दृढ़ता से (सीद) स्थिर हो ॥५८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा तथा वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जिस परमेश्वर ने जो शरद् ऋतु बनाया है, उसकी उपासनापूर्वक इस ऋतु को युक्ति से सेवन करके स्त्री-पुरुष सदा सुख बढ़ाया करें ॥५८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

स्त्रिया किं कार्यमित्याह ॥

अन्वय:

(परमेष्ठी) परम आकाशेऽभिव्याप्य स्थितः (त्वा) (सादयतु) स्थापयतु (दिवः) प्रकाशस्य (पृष्ठे) उपरि (ज्योतिष्मतीम्) प्रशस्तानि ज्योतींषि ज्ञानानि विद्यन्तेऽस्यां ताम् (विश्वस्मै) सर्वस्मै (प्राणाय) (अपानाय) (व्यानाय) (विश्वम्) सर्वम् (ज्योतिः) प्रकाशम् (यच्छ) (सूर्य्यः) सूर्य्य इव वर्त्तमानः (ते) तव (अधिपतिः) स्वामी (तया) पत्याख्यया (देवतया) दिव्यगुणयुक्तया (अङ्गिरस्वत्) (ध्रुवा) दृढा (सीद) स्थिरा भव ॥५८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे स्त्रि ! परमेष्ठी ज्योतिष्मतीं त्वा दिवस्पृष्ठे विश्वस्मै प्राणायापानाय व्यानाय सादयतु, त्वं विश्वं ज्योतिः सर्वाभ्यः स्त्रीभ्यो यच्छ। यस्यास्ते तव सूर्य्य इवाधिपतिरस्ति, तया देवतया सह वर्त्तमानाऽङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद ॥५८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। येन परमेश्वरेण यः शरदृतू रचितस्तस्योपासनापुरस्सरं तं युक्त्या सेवित्वा स्त्रीपुरुषाः सुखं सदा वर्धयन्तु ॥५८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. ज्या परमेश्वराने शरद ऋतूची निर्मिती केलेली आहे त्या परमेश्वराची उपासना करून या ऋतूचे युक्तीने सेवन करावे व स्त्री - पुरुषांनी नेहमी सुख वाढवावे.