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अ॒यं द॑क्षि॒णा वि॒श्वक॑र्मा॒ तस्य॑ रथस्व॒नश्च॒ रथे॑चित्रश्च सेनानीग्राम॒ण्यौ। मे॒न॒का च॑ सहज॒न्या चा॑प्स॒रसौ॑ यातु॒धाना॑ हे॒ती रक्षा॑सि॒ प्रहे॑ति॒स्तेभ्यो॒ नमो॑ऽअस्तु॒ ते नो॑ऽवन्तु॒ ते नो॑ मृडयन्तु॒ ते यं द्वि॒ष्मो यश्च॑ नो॒ द्वेष्टि॒ तमे॑षां॒ जम्भे॑ दध्मः ॥१६

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒यम्। द॒क्षि॒णा। वि॒श्वक॒र्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मा। तस्य॑। र॒थ॒स्व॒न इति॑ रथऽस्व॒नः। च॒। रथे॑चित्र॒ इति॒ रथे॑ऽचित्रः। च॒। से॒ना॒नी॒ग्रा॒म॒ण्यौ। से॒ना॒नी॒ग्रा॒म॒न्याविति॑ सेनानीग्राम॒न्यौ। मे॒न॒का। च॒। स॒ह॒ज॒न्येति॑ सहऽज॒न्या। च॒। अ॒प्स॒रसौ॑। या॒तु॒धाना॒ इति॑ यातु॒ऽधानाः॑। हे॒तिः। रक्षा॑सि। प्रहे॑ति॒रिति॒ प्रऽहे॑तिः। तेभ्यः॑। नमः॑। अ॒स्तु॒। ते। नः॒। अ॒व॒न्तु॒। ते। नः॒। मृ॒ड॒य॒न्तु॒। ते। यम्। द्वि॒ष्मः। यः। च॒। नः॒। द्वेष्टि॑। तम्। ए॒षा॒म्। जम्भे॑। द॒ध्मः॒ ॥१६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:15» मन्त्र:16


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी वैसा ही विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे (अयम्) यह (विश्वकर्मा) सब चेष्टारूप कर्मों का हेतु वायु (दक्षिणा) दक्षिण दिशा से चलता है, (तस्य) उस वायु के (रथस्वनः) रथ के शब्द के समान शब्दवाला (च) और (रथेचित्रः) रमणीय रथ में चिह्नयुक्त आश्चर्य कार्यों का करनेवाला (च) ये दोनों (सेनानीग्रामण्यौ) सेनापति और ग्रामाध्यक्ष के समान वर्त्तमान (मेनका) जिस से मनन किया जाय वह (च) और (सहजन्या) एक साथ उत्पन्न हुई (च) ये दोनों (अप्सरसौ) अन्तरिक्ष में रहनेवाली किरणादि अप्सरा हैं, जो (यातुधाना) प्रजा को पीड़ा देनेवाले हैं, उन के ऊपर (हेतिः) वज्र जो (रक्षांसि) दुष्ट कर्म करनेवाले हैं, उन के ऊपर (प्रहेतिः) प्रकृष्ट वज्र के तुल्य (तेभ्यः) उन प्रजापीड़क आदि के लिये (नमः) वज्र का प्रहार (अस्तु) हो। ऐसा करके जो न्यायाधीश शिक्षक हैं, (ते) वे (नः) हमारी (अवन्तु) रक्षा करें। (ते) वे (नः) हमको (मृडयन्तु) सुखी करें, (ते) वे हम लोग (यम्) जिस दुष्ट से (द्विष्मः) द्वेष करें (च) और (यः) जो दुष्ट (नः) हम से (द्वेष्टि) द्वेष करे, (तम्) उस को (एषाम्) इन वायुओं के (जम्भे) व्याघ्र के समान मुख में (दध्मः) धारण करते हैं, वैसा प्रयत्न करो ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो स्थूल, सूक्ष्म और मध्यस्थ वायु से उपयोग लेने को जानते हैं, वे शत्रुओं का निवारण करके सब को आनन्दित करते हैं। यह भी ग्रीष्म ऋतु का शेष व्याख्यान है, ऐसा जानो ॥१६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तादृशमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(अयम्) (दक्षिणा) दक्षिणतः (विश्वकर्मा) विश्वानि सर्वाणि कर्माणि यस्मात् स वायुः (तस्य) (रथस्वनः) रथस्य स्वनः शब्द इव शब्दो यस्य सः (च) (रथेचित्रः) रथे रमणीये चित्राण्याश्चर्य्यरूपाणि चिह्नानि यस्य सः (च) (सेनानीग्रामण्यौ) (मेनका) यया मन्यते सा (च) (सहजन्या) सहोत्पन्ना (च) (अप्सरसौ) ये अप्स्वन्तरिक्षे सरतस्ते (यातुधानाः) प्रजापीडकाः (हेतिः) वज्रः (रक्षांसि) दुष्टकर्मकारिणः (प्रहेतिः) (तेभ्यः) (नमः) वज्रः (अस्तु) (ते) (नः) अस्मान् (अवन्तु) (ते) (नः) (मृडयन्तु) सुखयन्तु (ते) (यम्) (द्विष्मः) (यः) (च) (नः) (द्वेष्टि) (तम्) (एषाम्) वायूनाम् (जम्भे) व्याघ्रस्य मुख इव कष्टे (दध्मः)। [अयं मन्त्रः शत०८.६.१.१७-१८ व्याख्यातः] ॥१६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यथा योऽयं विश्वकर्मा वायुर्दक्षिणा वाति तस्य वायो रथस्वनश्च रथेचित्रश्च सेनानीग्रामण्याविव वर्त्तमाने मेनका च सहजन्या चाप्सरसौ वर्त्तेते। ये यातुधानाः सन्ति तेषामुपरि हेतिर्यानि रक्षांसि वर्त्तन्ते, तेषामुपरि प्रहेतिरिव तेभ्यो नमोस्त्विति कृत्वा शिक्षका न्यायाधीशास्ते नोऽवन्तु, ते नो मृडयन्तु, ते वयं यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां वायूनां जम्भे दध्मस्तथा प्रयतध्वम् ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये स्थूलसूक्ष्ममध्यस्थस्य वायोरुपयोगं कर्त्तुं जानन्ति ते शत्रून्निवार्य्य सर्वानानन्दयन्ति। इदमपि ग्रीष्मर्त्तोः शिष्टं व्याख्यानं वेद्यम् ॥१६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे स्थूल, सूक्ष्म व मध्यम वायूचा उपयोग करणे जाणतात ते शत्रूंचे निवारण करून सर्वांना आनंदित करतात. ही ग्रीष्म ऋतूची शेष व्याख्या आहे हे जाणा.