वांछित मन्त्र चुनें

तव॑ भ्र॒मास॑ऽ आशु॒या प॑त॒न्त्यनु॑ स्पृश धृष॒ता शोशु॑चानः। तपू॑ष्यग्ने जु॒ह्वा᳖ पत॒ङ्गानस॑न्दितो॒ विसृ॑ज॒ विष्व॑गु॒ल्काः ॥१० ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तव॑। भ्र॒मासः॑। आ॒शु॒येत्या॑शु॒या। प॒त॒न्ति॒। अनु॑। स्पृ॒श॒। धृ॒ष॒ता। शोशु॑चानः। तपू॑षि। अ॒ग्ने॒। जु॒ह्वा᳖। प॒त॒ङ्गान्। अस॑न्दित॒ इत्यस॑म्ऽदितः। वि। सृ॒ज॒। विष्व॑क्। उ॒ल्काः ॥१० ॥

यजुर्वेद » अध्याय:13» मन्त्र:10


बार पढ़ा गया

हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह सेनापति क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्वी सेनापते ! (शोशुचानः) अत्यन्त पवित्र आचरण करने हारे आप जो (तव) आप के (भ्रमासः) भ्रमणशील वीर पुरुष जैसे (विष्वक्) सब ओर से (आशुया) शीघ्र चलनेहारी (उल्काः) बिजुली की गतियाँ वैसे (पतन्ति) श्येनपक्षी के समान शत्रुओं के दल में तथा शत्रुओं में गिरते हैं, उनको (धृषता) दृढ़ सेना से (अनु) अनुकूल (स्पृश) प्राप्त हूजिये और (असन्दितः) अखण्डित हुए (जुह्वा) घी के हवन का साधन लपट अग्नि के (तपूंषि) तेज के समान शत्रुओं के ऊपर सब ओर से बिजुली को (विसृज) छोड़िये और (पतङ्गान्) घोड़ों को सुन्दर शिक्षायुक्त कीजिये ॥१० ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सेनापति और सेना के भृत्यों को चाहिये कि आपस में प्रीति के साथ बल बढ़ा वीर पुरुषों को हर्ष दें और सम्यक् युद्ध करा के अग्नि आदि अस्त्रों और भुशुण्डी आदि शस्त्रों से शत्रुओं के ऊपर बिजुली की वृष्टि करें, जिस से शीघ्र विजय हो ॥१० ॥
बार पढ़ा गया

संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स किं कुर्य्यादित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(तव) (भ्रमासः) भ्रमणशीला वीराः (आशुया) शीघ्रगमनाः। अत्र जसः स्थाने यादेशः (पतन्ति) श्येनवच्छत्रुदले संचरन्ति (अनु) (स्पृश) अनुगतो भव (धृषता) दृढेन सैन्येन (शोशुचानः) भृशं पवित्राचरणः (तपूंषि) तापाः (अग्ने) अग्निरिव वर्त्तमान (जुह्वा) आज्यहवनसाधनया (पतङ्गान्) अश्वान्। पतङ्गा इत्यश्वनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.१४) (असन्दितः) अखण्डितः (वि) (सृज) निष्पादय (विष्वक्) सर्वतः (उल्काः) विद्युत्पाताः ॥१० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सेनापतेऽग्ने ! शोशुचानस्त्वं ये तव भ्रमासो यथा विष्वगाशुयोल्कास्तथा शत्रुषु पतन्ति, तान् धृषताऽनुस्पृश। असन्दितोऽखण्डितः सन् जुह्वाग्नेस्तपूंषीव शत्रूणामुपरि सर्वतो विद्युतो विसृज पतङ्गान् सुशिक्षितानश्वान् कुरु ॥१० ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजसेनापतिसेनाभृत्यैः परस्परं प्रीत्या बलं संवर्ध्य वीरान् हर्षयित्वा संयोध्याग्न्याद्यस्त्रैः शतघ्न्यादिभिश्च शत्रूणामुपरि विद्युद्वृष्टिः कार्य्या, यतः सद्यो विजयः स्यात् ॥१० ॥
बार पढ़ा गया

मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सेनापती व सेनेतील लोकांनी आपापसात प्रेमाने राहून बल वाढवावे. वीर पुरुषांना आनंदित करावे. चांगल्या प्रकारे युद्ध करून अग्नी इत्यादी शस्त्र व भुशुंडी अस्त्रांनी शत्रूंवर विद्युत वर्षाव करावा म्हणजे ताबडतोब विजय प्राप्त होईल.