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अ॒पां पृ॒ष्ठम॑सि॒ योनि॑र॒ग्नेः स॑मु॒द्रम॒भितः॒ पिन्व॑मानम्। वर्ध॑मानो म॒हाँ२ऽआ च॒ पुष्क॑रे दि॒वो मात्र॑या वरि॒म्णा प्र॑थस्व ॥२९ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒पाम्। पृ॒ष्ठम्। अ॒सि॒। योनिः॑। अ॒ग्नेः। स॒मु॒द्रम्। अ॒भितः॑। पिन्व॑मानम्। वर्ध॑मानः। म॒हान्। आ। च॒। पुष्क॑रे। दि॒वः। मात्र॑या। व॒रि॒म्णा। प्र॒थ॒स्व॒ ॥२९ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:29


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर मनुष्य कैसी बिजुली का ग्रहण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जिस कारण (अग्नेः) सर्वत्र अभिव्याप्त बिजुली रूप अग्नि के (योनिः) संयोग-वियोगों के जानने (महान्) पूजनीय (वर्धमानः) विद्या तथा क्रिया की कुशलता से नित्य बढ़नेवाले आप (असि) हैं। इसलिये (अभितः) सब ओर से (पिन्वमानम्) जल वर्षाते हुए (अपाम्) जलों के (पृष्ठम्) आधारभूत (पुष्करे) अन्तरिक्ष में वर्त्तमान (दिवः) दीप्ति के (मात्रया) विभाग से बढ़े हुए (समुद्रम्) अच्छे प्रकार जिस में ऊपर को जल उठते हैं, उस समुद्र (च) और वहाँ के सब पदार्थों को जान के (वरिम्णा) बहुत्व के साथ (आप्रथस्व) अच्छे प्रकार सुखों को विस्तार करनेवाले हूजिये ॥२९ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम लोग पृथिवी आदि स्थूल पदार्थों में बिजुली जिस प्रकार वर्त्तमान है, वैसे ही जलों में भी है, ऐसा समझ और उससे उपकार ले के बड़े-बड़े विस्तारयुक्त सुखों को सिद्ध करो ॥२९ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्मनुष्याः कीदृशं विद्युतं गृह्णीयुरित्याह ॥

अन्वय:

(अपाम्) जलानाम् (पृष्ठम्) आधारः (असि) (योनिः) संयोगविभागवित् (अग्नेः) सर्वतोऽभिव्याप्तस्य विद्युद्रूपस्य सकाशात् प्रचलन्तम् (समुद्रम्) सम्यगूर्ध्वं द्रवन्त्यापो यस्मात् सागरात् तम् (अभितः) सर्वतः (पिन्वमानम्) सिञ्चन्तम् (वर्धमानः) यो विद्यया क्रियाकौशलेन नित्यं वर्धते (महान्) पूज्यः (आ) (च) सर्वमूर्त्तद्रव्यसमुच्चये (पुष्करे) अन्तरिक्षे वर्त्तमानायाः। पुष्करमित्यन्तरिक्षनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.३) (दिवः) दीप्तेः (मात्रया) विभागेन (वरिम्णा) उरोर्बहोर्भावेन (प्रथस्व) विस्तृतसुखो भव। [अयं मन्त्रः शत०६.३.४.८ व्याख्यातः] ॥२९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यतोऽग्नेर्योनिर्महान् वर्धमानस्त्वमसि तस्मादभितः पिन्वमानमपां पृष्ठं पुष्करे दिवो मात्रया वर्धमानं समुद्रं तत्स्थान् पदार्थांश्च विदित्वा वरिम्णाऽऽप्रथस्व ॥२९ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! यूयं यथा मूर्त्तेषु पृथिव्यादिषु पदार्थेषु विद्युद्वर्त्तते, तथाऽप्स्वपि मत्वा तामुपकृत्य विस्तृतानि सुखानि संपादयत ॥२९ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! पृथ्वी इत्यादी स्थूल पदार्थांमध्ये विद्युत ज्या प्रकारे विद्यमान असते तशीच ती जलातही असते हे तुम्ही जाणा व तिचा उपयोग करून घ्या आणि सुख वाढवा.