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पृ॒थि॒व्याः स॒धस्था॑द॒ग्निं पु॑री॒ष्य᳖मङ्गिर॒स्वदाभ॑रा॒ग्निं पु॑री॒ष्य᳖मङ्गिर॒स्वदच्छे॑मो॒ऽग्निं पु॑री॒ष्य᳖मङ्गिर॒स्वद्भ॑रिष्यामः ॥१६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्था॒दिति॑ स॒धऽस्था॑त्। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म्। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। आ। भ॒र॒। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म्। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। अच्छ॑। इ॒मः॒। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म्। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। भ॒रि॒ष्या॒मः॒ ॥१६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:11» मन्त्र:16


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्य किस पदार्थ से बिजुली का ग्रहण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! जैसे हम लोग (पृथिव्याः) भूमि और अन्तरिक्ष के (सधस्थात्) एक स्थान से (अङ्गिरस्वत्) प्राणों के समान (पुरीष्यम्) अच्छा सुख देने हारे (अग्निम्) भूमिमण्डल की बिजुली को (अच्छ) उत्तम रीति से (इमः) प्राप्त होते और जैसे (अङ्गिरस्वत्) प्राणों के समान (पुरीष्यम्) उत्तम सुखदायक (अग्निम्) अन्तरिक्षस्थ बिजुली को (भरिष्यामः) धारण करें, वैसे आप भी (अङ्गिरस्वत्) सूर्य्य के समान (पुरीष्यम्) उत्तम सुख देनेवाले (अग्निम्) पृथिवी पर वर्त्तमान अग्नि को (आभर) अच्छे प्रकार धारण कीजिये ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को चाहिये कि विद्वानों के समान काम करें, मूर्खवत् नहीं और सब काल में उत्साह के साथ अग्नि आदि की पदार्थविद्या का ग्रहण करके सुख बढ़ाते रहें ॥१६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः कस्माद् विद्युत् स्वीकार्य्येत्याह ॥

अन्वय:

(पृथिव्याः) भूमेरन्तरिक्षस्य वा (सधस्थात्) सहस्थानात् (अग्निम्) भूमिस्थं विद्युतं वा (पुरीष्यम्) यः सुखं पृणाति स पुरीषस्तत्र साधुम् (अङ्गिरस्वत्) अङ्गिरसा सूर्येण तुल्यम् (आ) (भर) धर (अग्निम्) अन्तरिक्षे वाय्वादिस्थम् (पुरीष्यम्) (अङ्गिरस्वत्) (अच्छ) उत्तमरीत्या (इमः) प्राप्नुमः (अग्निम्) (पुरीष्यम्) (अङ्गिरस्वत्) (भरिष्यामः) धरिष्यामः। [अयं मन्त्रः शत०६.३.२.९; ६.३.३.५ व्याख्यातः] ॥१६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! यथा वयं पृथिव्याः सधस्थादङ्गिरस्वत् पुरीष्यमग्निमच्छेमः। यथा चाऽङ्गिरस्वत् पुरीष्यमग्निं भरिष्यामस्तथा त्वमप्यङ्गिरस्वत् पुरीष्यमग्निमाभर ॥१६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्विदुषामेवाऽनुकरणं कर्त्तव्यम्, नाऽविदुषाम्। सर्वदोत्साहेनाग्न्यादिपदार्थविद्यां गृहीत्वा सुखं वर्द्धनीयम् ॥१६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी विद्वानांसारखे काम करावे. मूर्खाप्रमाणे करू नये. सदैव उत्साहाने अग्नी इत्यादी पदार्थविद्या ग्रहण करून सुख वाढवावे.