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कु॒विद॒ङ्ग यव॑मन्तो॒ यवं॑ चि॒द्यथा॒ दान्त्य॑नुपू॒र्वं वि॒यूय॑। इ॒हेहै॑षां कृणुहि॒ भोज॑नानि॒ ये ब॒र्हिषो॒ नम॑उक्तिं॒ यज॑न्ति। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्य॒श्विभ्यां॑ त्वा॒ सर॑स्वत्यै॒ त्वेन्द्रा॑य त्वा सु॒त्राम्णे॑ ॥३२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

कु॒वित्। अ॒ङ्ग। यव॑मन्त॒ इति॒ यव॑ऽमन्तः। यव॑म्। चि॒त्। यथा॑। दान्ति॑। अ॒नु॒पू॒र्वमित्य॑नुऽपूर्व॑म्। वि॒यूयेति॑ वि॒ऽयूय॑। इ॒हेहेती॒हऽइ॑ह। ए॒षा॒म्। कृ॒णु॒हि॒। भो॑जनानि। ये। ब॒र्हिषः॑। नम॑उक्ति॒मिति॒ नमः॑ऽउक्तिम्। यज॑न्ति। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत इत्यु॑पयाम॒ऽगृ॑हीतः॒। अ॒सि॒। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। त्वा॒। सर॑स्वत्यै। त्वा॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णे॑ ॥३२॥

यजुर्वेद » अध्याय:10» मन्त्र:32


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजा आदि सभा के पुरुष किस के तुल्य क्या-क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अङ्ग) ज्ञानवान् राजन् ! जो (कुवित्) बहुत ऐश्वर्य्यवाले आप (अश्विभ्याम्) विद्या को प्राप्त हुए शिक्षक लोगों के लिये (उपयामगृहीतः) ब्रह्मचर्य के नियमों से स्वीकार किये (असि) हैं, उन (सरस्वत्यै) विद्यायुक्त वाणी के लिये (त्वा) आपको (इन्द्राय) उत्तम ऐश्वर्य के लिये (त्वा) आप को और (सुत्राम्णे) अच्छी रक्षा के लिये (त्वा) आपको हम लोग स्वीकार करते हैं। (ये) जो (बर्हिषः) वृद्धपुरुष (नमउक्तिम्) अन्न के कहने को (यजन्ति) सङ्गत करते हैं, उन के लिये सत्कार के साथ भोजन आदि दीजिये। जैसे (यवमन्तः) बहुत जौ आदि धान्य से युक्त खेती करनेहारे लोग (इहेह) इस-इस व्यवहार में (यवम्) यवादि अन्न को (अनुपूर्वम्) क्रम से (दान्ति) लुनते हैं, भुस से (चित्) भी (यवम्) जवों को (वियूय) पृथक् करके रक्षा करते हैं, वैसे सत्य-असत्य को ठीक-ठीक विचार के इन की रक्षा कीजिये ॥३२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे खेती करनेवाले लोग परिश्रम के साथ पृथिवी से अनेक फलों को उत्पन्न और रक्षा करके भोगते और असार को फेंकते हैं, और जैसे ठीक-ठीक राज्य का भाग राजा को देते हैं, वैसे ही राजा आदि पुरुषों को चाहिये कि अत्यन्त परिश्रम से इनकी रक्षा, न्याय के आचरण से ऐश्वर्य्य को उत्पन्न कर और सुपात्रों के लिये देते हुए आनन्द को भोगें ॥३२॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

राजादिसभ्यैः प्रजायै किंवत् किं किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

अन्वय:

(कुवित्) बह्वैश्वर्य्य, कुविदिति बहुनामसु पठितम्। (निघं०३.१) (अङ्ग) योऽङ्गति जानाति तत्सम्बुद्धौ (यवमन्तः) बहवो यवा विद्यन्ते येषां ते कृषीवलाः (यवम्) (चित्) अपि (यथा) (दान्ति) लुनन्ति (अनुपूर्वम्) क्रमशः (वियूय) बुसादिकं पृथक्कृत्य (इहेह) अस्मिन्नस्मिन् व्यवहारे (एषाम्) कृषीवलानाम् (कृणुहि) कुरु (भोजनानि) (ये) (बर्हिषः) वृद्धाः (नमउक्तिम्) नमसोऽन्नस्योक्तिं वचनम् (यजन्ति) सङ्गच्छन्ते (उपयामगृहीतः) ब्रह्मचर्यनियमैः स्वीकृतः (असि) (अश्विभ्याम्) व्याप्तविद्याभ्यां शिक्षकाभ्याम् (त्वा) त्वाम् (सरस्वत्यै) विद्यायुक्तवाचे (त्वा) (इन्द्राय) उत्तमैश्वर्य्याय (त्वा) (सुत्राम्णे) सुष्ठु त्राणाय ॥ अयं मन्त्रः (शत०५.५.४.२४) व्याख्यातः ॥३२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अङ्ग राजन् ! यः कुवित् त्वमश्विभ्यामुपयामगृहीतोऽसि तं सरस्वत्यै त्वेन्द्राय त्वा सुत्राम्णे त्वा वयं स्वीकुर्मः। ये बर्हिषो नमउक्तिं यजन्ति, तेभ्यः सत्कारेण भोजनादीनि देहि। यथा यवमन्त इहेह यवमनुपूर्वं दान्ति बुसाच्चिद् यवं वियूय रक्षन्ति, तथैषां सत्यासत्ये विविच्य रक्षणं कृणुहि ॥३२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा कृषीवलाः परिश्रमेण पृथिव्याः सकाशादनेकानि फलादीन्युत्पाद्य संरक्ष्य भुञ्जते, निस्सारं त्यजन्ति, यथा विहितं भागं राज्ञे ददति, तथैव राजादिभिर्जनैरतिश्रमेणैतान् संरक्ष्य न्यायेनैश्वर्य्यमुत्पाद्य सुपात्रेभ्यो दत्त्वाऽऽनन्दो भोक्तव्यः ॥३२॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्याप्रमाणे शेतकरी परिश्रमाने या भूमीवर फळाफळावळ उत्पन्न करतात, त्यांचे रक्षण करून शुष्क पदार्थ फेकून देतात व राज्याचा कर राजाला देतात त्यासाठी राजानेही अत्यंत परिश्रमाने त्यांचे रक्षण करावे व न्यायाने वागून ऐश्वर्य उत्पन्न करावे व सुपात्रांना द्यावे आणि आनंद प्राप्त करावा.