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धूर॑सि॒ धूर्व॒ धूर्व॑न्तं॒ धूर्व॒ तं यो॒ऽस्मान् धूर्व॑ति॒ तं धू॑र्व॒ यं व॒यं धूर्वा॑मः। दे॒वाना॑मसि॒ वह्नि॑तम॒ꣳ सस्नि॑तमं॒ पप्रि॑तमं॒ जुष्ट॑तमं देव॒हूत॑मम् ॥८॥

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पद पाठ

धूः। अ॒सि॒। धूर्व॑। धूर्व॑न्तं। धूर्व॑। तं। यः। अ॒स्मान्। धूर्व॑ति। तं। धू॒र्व॒। यं। व॒यं। धूर्वा॑मः। दे॒वाना॑म्। अ॒सि॒। वह्नि॑तम॒मिति॒ वह्नि॑ऽतमम्। सस्नि॑तम॒मिति॒ सस्नि॑ऽतमम्। पप्रि॑तम॒मिति॒ पप्रि॑ऽतमम्। जुष्ट॑तम॒मिति॒ जुष्ट॑ऽतमम्। दे॒व॒हूत॑म॒मिति दे॒व॒हूऽत॑मम् ॥८॥

यजुर्वेद » अध्याय:1» मन्त्र:8


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

सब क्रियाओं के धारण करनेवाले ईश्वर और पदार्थविद्या की सिद्धि के हेतु भौतिक अग्नि का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमेश्वर ! आप (धूः) सब दोषों के नाश और जगत् की रक्षा करनेवाले (असि) हैं, इस कारण हम लोग इस बुद्धि से (देवानाम्) विद्वानों को विद्या मोक्ष और सुख में (वह्नितमम्) यथायोग्य पहुँचाने (सस्नितमम्) अतिशय कर के शुद्ध करने (पप्रितमम्) सब विद्या और आनन्द से संसार को पूर्ण करने (जुष्टतमम्) धार्मिक भक्तजनों के सेवा करने योग्य और (देवहूतमम्) विद्वानों की स्तुति करने योग्य आप की नित्य उपासना करते हैं। (यः) जो कोई द्वेषी, छली, कपटी, पापी, कामक्रोधादियुक्त मनुष्य (अस्मान्) धर्मात्मा और सब को सुख से युक्त करनेवाले हम लोगों को (धूर्वति) दुःख देता है और (यम्) जिस पापीजन को (वयम्) हम लोग (धूर्वामः) दुःख देते हैं, (तम्) उसको आप (धूर्व) शिक्षा कीजिये तथा जो सबसे द्रोह करने वा सबको दुःख देता है, उसको भी आप सदैव (धूर्व) ताड़ना कीजिये ॥८॥ हे शिल्पविद्या को जानने की इच्छा करनेवाले मनुष्य ! तू जो भौतिक अग्नि (धूः) सब पदार्थों का छेदन और अन्धकार का नाश करनेवाला (असि) है तथा जो कला चलाने की चतुराई से यानों में विद्वानों को (वह्नितमम्) सुख पहुँचाने (सस्नितमम्) शुद्धि होने का हेतु (पप्रितमम्) शिल्पविद्या का मुख्य साधन (जुष्टतमम्) कारीगर लोग जिस का सेवन करते हैं तथा जो (देवहूतमम्) विद्वानों को स्तुति करने योग्य अग्नि है, उस को (वयम्) हम लोग (धूर्वामः) ताड़ते हैं और जिसका सेवन युक्ति से न किया जाय तो (अस्मान्) हम लोगों को (धूर्वति) पीड़ा करता है, (तम्) उस (धूर्वन्तम्) पीड़ा करनेवाले अग्नि को (धूर्व) यानादिकों में युक्त कर तथा हे वीर पुरुष ! तुम (यः) जो दुष्ट शत्रु (अस्मान्) हम लोगों को (धूर्वति) दुःख देता है (तम्) उस को (धूर्व) नष्ट कर तथा जो कोई चोर आदि है, उसका भी (धूर्व) नाश कीजिये ॥८॥
भावार्थभाषाः - जो ईश्वर सब जगत् को धारण कर रहा है, वह पापी दुष्ट जीवों को उन के किये हुए पापों के अनुकूल दण्ड देकर दुःखयुक्त और धर्मात्मा पुरुषों को उत्तम कर्मों के अनुसार फल देके उन की रक्षा करता है, वही सब सुखों की प्राप्ति, आत्मा की शुद्धि कराने और पूर्ण विद्या का देनेवाला, विद्वानों के स्तुति करने योग्य तथा प्रीति और इष्ट बुद्धि से सेवा करने योग्य है, दूसरा कोई नहीं। तथा यह प्रत्यक्ष भौतिक अग्नि भी सम्पूर्ण शिल्पविद्याओं की क्रियाओं को सिद्ध करने तथा उनका मुख्य साधन और पृथिवी आदि पदार्थों में अपने प्रकाश अथवा उनकी प्राप्ति से श्रेष्ठ है, क्योंकि जिस से सिद्ध की हुई आग्नेय आदि उत्तम शस्त्रास्त्रविद्या से शत्रुओं का पराजय होता है, इस से यह भी विद्या की युक्तियों से होम और विमान आदि के सिद्ध करने के लिये सेवा करने के योग्य है ॥८॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सर्वविद्याधारकेश्वरो विद्यासाधनीभूतो भौतिकोऽग्निश्चोपदिश्यते ॥

अन्वय:

(धूः) सर्वदोषनाशकोऽन्धकारनाशको वा (असि) अस्ति वा। अत्र सर्वत्र भौतिकपक्षे व्यत्ययेन प्रथमपुरुषो गृह्यते (धूर्व) हिंसय धूर्वति हिनस्ति वा (धूर्वन्तम्) हिंसाशीलं प्राणिनम् (धूर्व) हिंसय हिनस्ति वा (तम्) सर्वभूताभिद्रोग्धारम् (यः) अस्मद्द्वेष्टा (अस्मान्) धार्मिकान् सर्वेभ्यः सुखोपकर्तॄन् (धूर्वति) हिनस्ति (तम्) दुष्टं दस्युं चोरं वा (धूर्व) हिंसय हिनस्ति वा (यम्) पापिनम् (वयम्) विद्वांसः सर्वमित्राः (धूर्वामः) हिंसामः (देवानाम्) विदुषां पृथिव्यादीनां वा (असि) उत्पादको वर्त्तसे प्रकाशको वर्त्तते वा (वह्नितमम्) वहति प्रापयति यथायोग्यं सुखानि स वह्निः सोऽतिशयितस्तम् (सस्नितमम्) अतिशयेन शुद्धं शुद्धिकारकं च। तथा शुद्धिहेतुं भौतिकं वा। अथवा स्वव्याप्त्या सर्वजगद्द्वेष्टयितारमीश्वरं शिल्पविद्याहेतुं व्यापनशीलं भौतिकं वा। स्ना शौचे। अथवा ष्णो वेष्टने। इत्यस्य रूपम् (पप्रितमम्) प्राति प्रपूरयति सर्वाभिर्विद्याभिरानन्दैश्च जनान् स्वव्याप्त्या जगद्वा मूर्त्तं वस्तु शिल्पविद्यासाध्याङ्गानि च यः सोऽतिशयितस्तम् (जुष्टतमम्) धार्मिकैर्भक्तजनैः शिल्पिभिश्च यो जुष्यते स जुष्टः। अतिशयेन जुष्टस्तम् (देवहूतमम्) देवैर्विद्वद्भिः स्तूयते शब्द्यते सोऽतिशयितस्तम्। ‘ह्वेञ् स्पर्धायां शब्दे च’ इत्यस्य रूपम् ॥ अयं मन्त्रः (शत꠶१.१.२.१०-१२) व्याख्यातः ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमेश्वर ! यतस्त्वं धूरसि सर्वाभिरक्षकश्चासि तस्माद्वयमिष्टबुद्ध्या देवानां वह्नितमं सस्नितमं पप्रितमं जुष्टतमं देवहूतमं त्वां नित्यमुपास्महे। योऽस्मान् धूर्वति यं च वयं धूर्वामस्तं त्वं धूर्व। यश्च सर्वद्रोही तमपि धूर्वन्तं सर्वहिंसकं सदैव धूर्व। इत्येकः। हे शिल्पविद्यां चिकीर्षो ! त्वं यो भौतिकोऽग्निधूः सर्वपदार्थच्छेदकत्वाद्धिंसको (असि) अस्ति तं कलाकौशलेन यानेषु सम्प्रयोजनीयं देवानां वह्नितमं सस्नितमं पप्रितमं जुष्टतमं देवहूतममग्निं [यं च] वयं धूर्वामस्ताडयामः। योऽयुक्त्या सेवितोऽस्मान् धूर्वति तं धूर्वन्तमग्निं धूर्व। हे वीर ! त्वं यो दुष्टशत्रुरस्मान् धूर्वति तमप्याग्नेयास्त्रेण धूर्व यश्च दस्युरस्ति तमपि धूर्व ॥८॥
भावार्थभाषाः - यो धातेश्वरः सर्वं जगद्दधाति पापिनो दुष्टान् जीवान् तत्कृतपापफलदानेन ताडयति धार्मिकांश्च रक्षति। सर्वसुखप्रापक आत्मशुद्धिकारकः पूर्णविद्याप्रदाता विद्वद्भिः स्तोतव्यः प्रीत्येष्टबुद्ध्या च सेवनीयोऽस्ति। स एव सर्वैर्मनुष्यैर्भजनीयः। तथैव योऽग्निः सकलशिल्पविद्याक्रियासाधकतमः पृथिव्यादिपदार्थानां मध्ये प्रकाशकप्रापकतमतया श्रेष्ठोऽस्ति। यस्य प्रयोगेणाग्नेयास्त्रादिविद्यया शत्रूणां पराजयो भवति स एव शिल्पिभिर्विद्यायुक्त्या होमयानक्रियासिध्यर्थं सेवनीयः ॥८॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो ईश्वर जगाला धारण करतो, पापी दुष्ट जीवांना त्यांच्या पापानुसार दुःख भोगण्याची शिक्षा देतो व धार्मिक माणसांना उत्तम कर्मानुसार फळ देतो व त्यांचे रक्षण करतो तोच सर्व सुख देतो. तोच आत्म्याला शुद्ध करतो. पूर्ण विद्या देतो. विद्वान लोक त्याची स्तुती करतात. तोच भक्ती करण्यायोग्य आहे व शुद्ध बुद्धीने प्राप्त करण्यायोग्य आहे. दुसरा कुणीही नाही.
टिप्पणी: हा भौतिक अग्नीसुद्धा शिल्पविद्या क्रियान्वित करण्याचे मुख्य साधन असून, पृथ्वीवरील प्रकाश व पदार्थांची प्राप्ती त्याच्यामुळेच होते. पृथ्वी इत्यादी पदार्थात तो स्थित असतो. त्यामुळे तो श्रेष्ठ आहे. त्याच्यामुळेच आग्नेय शस्त्रास्त्र विद्येने शत्रूंचा पराभव होतो त्यासाठी हा भौतिक अग्नी होम करणे, विमान चालविणे इत्यादींसाठी उपयोगात आणला पाहिजे.