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पु॒रा क्रू॒रस्य॑ वि॒सृपो॑ विरप्शिन्नुदा॒दाय॑ पृथि॒वीं जी॒वदा॑नुम्। यामैर॑यँश्च॒न्द्रम॑सि स्व॒धाभि॒स्तामु॒ धीरा॑सोऽअनु॒दिश्य॑ यजन्ते। प्रोक्ष॑णी॒रासा॑दय द्विष॒तो व॒धो॒सि ॥२८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

पु॒रा। क्रूरस्य॑। वि॒सृप॒ इति वि॒ऽसृपः॑। वि॒र॒प्शि॒न्निति॑ विऽरप्शिन्। उ॒दा॒दायेत्यु॑त्ऽआ॒दाय॑। पृ॒थि॒वीम्। जी॒वदा॑नु॒मिति॑ जी॒वऽदा॑नुम्। याम्। ऐर॑यन्। च॒न्द्रम॑सि। स्व॒धाभिः॑। ताम्। ऊँ॒ इत्यूँ॑। धीरा॑सः। अ॒नु॒दिश्येत्य॑नु॒ऽदिश्य॑। य॒ज॒न्ते॒। प्रोक्ष॑णी॒रिति॑ प्र॒ऽउक्ष॑णीः। आ। सा॒द॒य॒। द्वि॒ष॒तः। व॒धः अ॒सि॒ ॥२८॥

यजुर्वेद » अध्याय:1» मन्त्र:28


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

वे दोष कैसे निवारण करने और वहाँ मनुष्यों को फिर क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (विरप्शिन्) महाशय महागुणवान् जगदीश्वर ! आपने (याम्) जिस (स्वधाभिः) अन्न आदि पदार्थों से युक्त और (जीवदानुम्) प्राणियों को जीवन देनेवाले पदार्थ तथा (पृथिवीम्) बहुत सी प्रजायुक्त पृथिवी को (उदादाय) ऊपर उठाकर (चन्द्रमसि) चन्द्रलोक के समीप स्थापन की है, इस कारण [ताम्] उस पृथिवी को (धीरासः) धीर बुद्धिवाले पुरुष प्राप्त होकर आपके (अनुदिश्य) अनुकूल चलकर [(यजन्ते)] यज्ञ का अनुष्ठान नित्य करते हैं। जैसे (चन्द्रमसि) आनन्द में वर्त्तमान होकर (धीरासः) बुद्धिमान् पुरुष (याम्) जिस (जीवदानुम्) जीवों की हितकारक (पृथिवीम्) पृथिवी के [(अनुदिश्य)] आश्रित होकर सेना और शस्त्रों को (उदादाय) क्रम से लेकर (विसृपः) जो कि युद्ध करनेवाले पुरुषों के प्रभाव दिखाने योग्य और (क्रूरस्य) शत्रुओं के अङ्ग विदीर्ण करनेवाले संग्राम के बीच में शत्रुओं को जीत कर राज्य को [ऐरयन्] प्राप्त होते हैं तथा जैसे इस उक्त प्रकार से धीर पुरुष (पुरा) पहिले समय में प्राप्त हुए जिन क्रियाओं से (प्रोक्षणीः, उ) अच्छी प्रकार पदार्थों को सींच के उनको [आसादय] सम्पादन करते हैं, वैसे ही (विरप्शिन्) महान् ऐश्वर्य्य की इच्छा करनेवाले पुरुष ! तू भी उसको प्राप्त होके ईश्वर का पूजन तथा पदार्थ सिद्धि करनेवाली उत्तम-उत्तम क्रियाओं का सम्पादन कर। जैसे (द्विषतः) शत्रुओं का (वधः) नाश (असि) हो, वैसे कामों को करके नित्य आनन्द में वर्तमान रह ॥२८॥
भावार्थभाषाः - जिस ईश्वर ने क्रम से अन्तरिक्ष में पृथिवी, पृथिवियों के समीप चन्द्रलोक, चन्द्रलोकों के समीप पृथिवियाँ, एक-दूसरे के समीप तारालोक और सब के बीच में अनेक सूर्य्यलोक तथा इन सब में नाना प्रकार की प्रजा रचकर स्थापन की है, वही परमेश्वर सब मनुष्यों को उपासना करने योग्य है। जब तक मनुष्य बल और क्रियाओं से युक्त होकर शत्रुओं को नहीं जीतते, तब तक राज्यसुख को नहीं प्राप्त हो सकते, क्योंकि बिना युद्ध और बल के शत्रु जन कभी नहीं डरते तथा विद्वान् लोग विद्या, न्याय और विनय के बिना यथावत् प्रजा के पालन करने को समर्थ नहीं हो सकते, इस कारण सब को जितेन्द्रिय होकर उक्त पदार्थों का सम्पादन करके सब के सुख के लिये उत्तम-उत्तम प्रयत्न करना चाहिये ॥२८॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

ते दोषाः कथं निवारणीयास्तत्र मनुष्यैः पुनः किं करणीयमित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(पुरा) पुरस्तात् (क्रूरस्य) कृन्तन्त्यङ्गानि यस्मिन् तस्य युद्धस्य। कृतेश्छः क्रू च। (उणा꠶२।११) अनेन कृन्ततेरक् प्रत्ययः। क्रू इत्यादेशश्च (विसृपः) योद्धृभिर्विविधं यत्सृप्यते तस्य। सृपितृदोः कसुन्। (अष्टा꠶३।४।१७) अनेन भावलक्षणे सृपिधातोः कसुन् (विरप्शिन्) महागुणविशिष्टेश्वर वा महैश्वर्य्यमिच्छुक मनुष्य ! विरप्शीति महन्नामसु पठितम्। (निघं꠶३।३)। (उदादाय) ऊर्ध्वं समन्ताद् गृहीत्वा (पृथिवीम्) विस्तृतप्रजायुक्ताम् (जीवदानुम्) या जीवेभ्यो जीवनार्थं वस्तु ददाति ताम् (याम्) पृथिवीम् (ऐरयन्) राज्याय प्राप्नुवन्ति। अत्र लडर्थे लङ् (चन्द्रमसि) चन्द्रलोकसमीप आह्लादे वा। (स्वधाभिः) अन्नैः सह वर्त्तमानाम्। स्वधेत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं꠶२।७)। (ताम्) एतल्लक्षणाम् (उ) वितर्के (धीरासः) मेधाविनः। धीर इति मेधाविनामसु पठितम्। (निघं꠶३।१५)। (अनुदिश्य) प्राप्तुं शोधयितुमनुलक्ष्य (यजन्ते) पूजयन्ति सङ्गतिं कुर्वते (प्रोक्षणीः) प्रकृष्टतया सिञ्चन्ति याभिः क्रियाभिः पात्रैर्वा ताः (आ) समन्तात् (सादय) स्थापय (द्विषतः) शत्रोः (वधः) हननम् (असि) भवेत्। अत्रापि पुरुषव्यत्ययो लिङर्थे लट् च ॥ अयं मन्त्रः (शत꠶१।२।५।१९-२६) व्याख्यातः ॥२८॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विरप्शिन् जगदीश्वर ! भवानेव यां स्वधाभिर्युक्तां जीवदानुं पृथिवीमुदादाय चन्द्रमसि स्थापितवानस्ति तस्माद् धीरासस्तामिमां पृथिवीं प्राप्य भवन्तमनुदिश्य नित्यं यजन्ते, यथा चन्द्रमस्यानन्देन वर्त्तमाना धीरासः यां जीवदानुं पृथिवीमनुदिश्य सेनां शस्त्राण्युदादाय विसृपः क्रूरस्य मध्ये शत्रून् जित्वा राज्यमैरयन् प्राप्नुवन्ति। यथा चैवं कृत्वा धीरासः पुरा प्रोक्षणीश्चासादितवन्तस्तथैव। हे विरप्शिन् ! त्वमपि उ इति वितर्के तां प्राप्येश्वरं यज प्रोक्षणीश्चासादय यथा च द्विषतो वधोऽसि भवेत्। तथा कृत्वाऽऽनन्दे नित्यं प्रवर्त्तस्व ॥२८॥
भावार्थभाषाः - येनेश्वरेणान्तरिक्षे पृथिव्यस्तत्समीपे चन्द्रास्तत्समीपे पृथिव्योऽन्योन्यं समीपस्थानि नक्षत्राणि सर्वेषां मध्ये सूर्य्यलोका एतेषु विविधाः प्रजाश्च रचयित्वा स्थापिताः सर्वैस्तत्रस्थैर्मनुष्यैः स एवोपासितुं योग्योऽस्ति। न यावन्मनुष्या बलक्रियाभ्यां युक्ता भूत्वा शत्रून् विजयन्ते, नैव तावत्स्थिरं राज्यसुखं प्राप्नुवन्ति। नैव युद्धबलाभ्यां विना शत्रवो बिभ्यति। नैव च विद्यान्यायविनयैर्विना यथावत् प्रजाः पालयितुं शक्नुवन्ति तस्मात् सर्वैर्जितेन्द्रियैर्भूत्वैतत् समासाद्य सर्वेषां सुखं कर्तुमनुलक्ष्य नित्यं प्रयतितव्यम् ॥२८॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्या ईश्वराने नियमपूर्वक अंतरिक्षात पृथ्वी व तिच्याजवळ चंद्र, असंख्य तारे, त्या सर्वांमध्ये अनेक सूर्य अशी रचना करून त्यात विविध प्रकारच्या पदार्थांची निर्मिती केलेली आहे, अशा परमेश्वराची उपासना सर्वांनीच केली पाहिजे. जोपर्यंत माणूस बलवान बनून कर्म करण्यास उद्युक्त होणार नाही तोपर्यत तो शत्रूला जिंकणार नाही व राज्याचे सुख प्राप्त करू शकणार नाही. कारण युद्धाशिवाय, शक्तीशिवाय शत्रू कधीही घाबरणार नाही व विद्वान लोकही त्याशिवाय विद्या, न्याय व नम्रता यांच्या योगाने प्रजेचे पालन करू शकणार नाहीत. यासाठी सर्वांनी जितेंद्रिय बनून वरील पदार्थ प्राप्त करून सर्वांच्या सुखासाठी इष्ट प्रयत्न करावेत.