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यु॒ष्माऽइन्द्रो॑ऽवृणीत वृत्र॒तूर्य्ये॑ यू॒यमिन्द्र॑मवृणीध्वं वृत्र॒तूर्ये॒ प्रोक्षि॑ता स्थ। अ॒ग्नये॑ त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑म्य॒ग्नीषोमा॑भ्यां त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मि। दैव्या॑य॒ कर्म॑णे शुन्धध्वं देवय॒ज्यायै॒ यद्वोऽशु॑द्धाः पराज॒घ्नुरि॒दं व॒स्तच्छु॑न्धामि ॥१३॥

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पद पाठ

यु॒ष्माः। इन्द्रः॑। अ॒वृ॒णी॒त॒। वृ॒त्र॒तूर्य्य॒ इति॑ वृत्र॒ऽतूर्य्ये॑। यू॒यम्। इन्द्र॑म्। अ॒वृ॒णी॒ध्व॒म्। वृ॒त्र॒तूर्य्य॒ इति॑ वृ॒त्र॒ऽतूर्य्ये॑। प्रोक्षि॑ता॒ इति॒ प्रऽउ॑क्षिताः। स्थ॒। अ॒ग्नये॑। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। अ॒ग्नीषोमा॑भ्याम्। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्रऽउ॒क्षा॒मि॒ ॥ दैव्या॑य। कर्म॑णे। शु॒न्ध॒ध्व॒म्। दे॒व॒य॒ज्याया॒ इति॑ देवऽय॒ज्यायै॑। यत्। वः॒। अशु॑द्धाः। प॒रा॒ज॒घ्नुरिति॑ पराऽज॒घ्नुः। इ॒दम्। वः॒ तत्। शु॒न्धा॒मि॒ ॥१३॥

यजुर्वेद » अध्याय:1» मन्त्र:13


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

उक्त जल किस प्रकार के हैं वा इन्द्र और वृत्र का युद्ध कैसे होता है, सो अगले मन्त्र में कहा गया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यह जैसे (इन्द्रः) सूर्य्यलोक (वृत्रतूर्य्ये) मेघ के वध के लिये (युष्माः) पूर्वोक्त जलों को (अवृणीत) स्वीकार करता है, जैसे जल (इन्द्रम्) वायु को (अवृणीध्वम्) स्वीकार करते हैं, वैसे ही (यूयम्) हे मनुष्यो ! तुम लोग उन जल, औषधि, रसों को शुद्ध करने के लिये (वृत्रतूर्य्ये) मेघ के शीघ्रवेग में (प्रोक्षिताः) संसारी पदार्थों के सींचनेवाले जलों को (अवृणीध्वम्) स्वीकार करो और जैसे वे जल शुद्ध (स्थ) होते हैं, वैसे तुम भी शुद्ध हो। इसलिये मैं यज्ञ का अनुष्ठान करनेवाला (दैव्याय) सब को शुद्ध करनेवाले (कर्मणे) उत्क्षेपण=उछालना, अवक्षेपण=नीचे फेंकना, आकुञ्चन=सिमेटना, प्रसारण=फैलाना, गमन=चलना आदि पाँच प्रकार के कर्म हैं, उन के और (देवयज्यायै) विद्वान् वा श्रेष्ठ गुणों की दिव्य क्रिया के लिये तथा (अग्नये) भौतिक अग्नि से सुख के लिये (जुष्टम्) अच्छी क्रियाओं से सेवन करने योग्य (त्वा) उस यज्ञ को (प्रोक्षामि) करता हूँ तथा (अग्नीषोमाभ्याम्) अग्नि और सोम से वर्षा के निमित्त (जुष्टम्) प्रीति देनेवाला और प्रीति से सेवने योग्य (त्वा) उक्त यज्ञ को (प्रोक्षामि) मेघमण्डल में पहुँचाता हूँ। इस प्रकार यज्ञ से शुद्ध किये हुए जल (शुन्धध्वम्) अच्छे प्रकार शुद्ध होते हैं। (यत्) जिस कारण यज्ञ की शुद्धि से (वः) पूर्वोक्त जलों के अशुद्धि आदि दोष (पराजघ्नुः) निवृत्त हों, (तत्) उन जलों की शुद्धि को मैं (शुन्धामि) अच्छे प्रकार शुद्ध करता हूँ ॥ यह इस मन्त्र का प्रथम अर्थ है ॥१॥१३॥ हे यज्ञ करनेवाले मनुष्यो ! (यत्) जिस कारण (इन्द्रः) सूर्य्यलोक (वृत्रतूर्य्ये) मेघ के वध के निमित्त (युष्माः) पूर्वोक्त जल और (इन्द्रम्) पवन को (अवृणीत) स्वीकार करता है तथा जिस कारण सूर्य्य ने (वृत्रतूर्य्ये) मेघ की शीघ्रता के निमित्त (युष्माः) पूर्वोक्त जलों को (प्रोक्षिताः) पदार्थ सींचनेवाले (स्थ) किये हैं, इससे (यूयम्) तुम (त्वा) उक्त यज्ञ को सदा स्वीकार करके (नयत) सिद्धि को प्राप्त करो। इस प्रकार हम सब लोग (दैव्याय) श्रेष्ठ कर्म वा (देवयज्यायै) विद्वान् और दिव्य गुणों की श्रेष्ठ क्रियाओं के तथा (अग्नये) परमेश्वर की प्राप्ति के लिये (जुष्टम्) प्रीति करानेवाले यज्ञ को (प्रोक्षामि) सेवन करें तथा (अग्नीषोमाभ्याम्) अग्नि और सोम से प्रकाशित होनेवाले (त्वा) उक्त यज्ञ को (प्रोक्षामि) मेघमण्डल में पहुँचावें। हे मनुष्यो ! इस प्रकार करते हुए तुम सब पदार्थों वा सब मनुष्यों को (शुन्धध्वम्) शुद्ध करो और (यत्) जिससे (वः) तुम लोगों के अशुद्धि आदि दोष हैं, वे सदा (पराजघ्नुः) निवृत्त होते रहें। वैसे ही मैं वेद का प्रकाश करनेवाला तुम लोगों के शोधन अर्थात् शुद्धिप्रकार को (शुन्धामि) अच्छे प्रकार बढ़ाता हूँ ॥२॥१३॥
भावार्थभाषाः - (इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है) परमेश्वर ने अग्नि और सूर्य्य को इसलिये रचा है कि वे सब पदार्थों में प्रवेश कर के उनके रस और जल को छिन्न-भिन्न कर दें, जिस से वे वायुमण्डल में जाकर फिर वहाँ से पृथिवी पर आके सब को सुख और शुद्धि करनेवाले हों। इस से मनुष्यों को उत्तम सुख प्राप्त होने के लिये अग्नि में सुगन्धित पदार्थों के होम से वायु और वृष्टि जल की शुद्धि द्वारा श्रेष्ठ सुख बढ़ाने के लिये प्रीतिपूर्वक नित्य यज्ञ करना चाहिये। जिस से इस संसार के सब रोग आदि दोष नष्ट होकर उस में शुद्ध गुण प्रकाशित होते रहें। इसी प्रयोजन के लिये मैं ईश्वर तुम सबों को उक्त यज्ञ के निमित्त शुद्धि करने का उपदेश करता हूँ कि हे मनुष्यो ! तुम लोग परोपकार करने के लिये शुद्ध कर्मों को नित्य किया करो तथा उक्त रीति से वायु, अग्नि और जल के गुणों को शिल्पक्रिया में युक्त करके अनेक यान आदि यन्त्रकला बना कर अपने पुरुषार्थ से सदैव सुखयुक्त होओ ॥१३॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ताः कथंभूता आप इन्द्रवृत्रयुद्धं चेत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(युष्माः) ताः पूर्वोक्ता आपः। अत्र व्यत्ययः। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति [अष्टा꠶१.४.९ भा꠶] इति शसः सकारस्य नत्वाभावश्च (इन्द्रः) सूर्य्यलोकः (अवृणीत) वृणीते। अत्र लडर्थे लङ् (वृत्रतूर्य्ये) वृत्रस्य मेघस्य तूर्य्यो वधस्तस्मिन्। वृत्र इति मेघनामसु पठितम् (निघं꠶१।१०) ‘तूरी गतित्वरणहिंसनयोः’ इत्यस्मात् कर्मणि ण्यत्। वृत्रतूर्य्य इति संग्रामनामसु पठितम् (निघं꠶२।१७)। (यूयम्) विद्वांसो मनुष्याः (इन्द्रम्) वायुम्। इन्द्रेण वायुना (ऋ꠶१।१४।१०) इतीन्द्रशब्देन वायोर्ग्रहणम् (अवृणीध्वम्) वृणते स्वीकुरुध्वम्। अत्र प्रथमपक्षे लडर्थे लङ् (वृत्रतूर्य्ये) वृत्रस्य तूर्य्ये शीघ्रवेगे। (प्रोक्षिताः) प्रकृष्टतया सिक्ताः सेचिता वा (स्थ) भवन्ति। अत्रापि व्यत्ययः (अग्नये) भौतिकाय परमेश्वराय वा (त्वा) तं यज्ञम् (जुष्टम्) विद्याप्रीतिक्रियाभिः सेवितम् (प्रोक्षामि) सेचयामि (अग्नीषोमाभ्याम्) अग्निश्च सोमश्च ताभ्याम् (त्वा) तं वृष्ट्यर्थम् (जुष्टम्) प्रीतं प्रीत्या सेवनीयम् (प्रोक्षामि) प्रेरयामि (दैव्याय) दिवि भवं दिव्यं तस्य भावस्तस्मै (कर्मणे) पञ्चविधलक्षणचेष्टामात्राय। उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकुञ्चनं प्रसारणं गमनमिति कर्माणि (वैशे꠶१।७)। इत्यत्र पञ्चविधं कर्म गृह्यते (शुन्धध्वम्) शुन्धन्ति शोधयत वा। अत्रापि व्यत्ययः, आत्मनेपदं च (देवयज्यायै) देवानां विदुषां दिव्यगुणानां वा यज्या सत्क्रिया तस्यै। छन्दसि निष्टर्क्य꠶(अष्टा꠶३।१।१२३) इति देवयज्याशब्दो निपातितः (यत्) यस्माद्यज्ञेन शोधितत्वात् (वः) तासां युष्माकं वा (अशुद्धाः) न शुद्धा अशुद्धा गुणाः (पराजघ्नुः) पराहता विनष्टा भवेयुः। अत्र लिङर्थे लिट् (इदम्) शोधनम् (वः) तासां युष्माकं वा (तत्) तस्मादशुद्धिनाशेन सुखार्थत्वात् (शुन्धामि) पवित्री करोमि ॥ अयं मन्त्रः (शत꠶१।१।३।८-१२) व्याख्यातः ॥१३॥

पदार्थान्वयभाषाः - यथाऽयमिन्द्रो वृत्रतूर्य्ये युष्मास्ताः पूर्वोक्ता अप अवृणीत वृणीते। यथा ता इन्द्रं वायुमवृणीध्वं वृणते तथैव ता अपो यूयं वृत्रतूर्य्ये प्रोक्षिताऽवृणीध्वम्। यथा ता आपः शुद्धा स्थ भवेयुरेतदर्थमहं यज्ञानुष्ठाता दैव्याय कर्मणे देवयज्याया अग्नये जुष्टं त्वा तं यज्ञं प्रोक्षामि। एवमग्नीषोमाभ्यां जुष्टं त्वा तं यज्ञं प्रोक्षामि। एवं यज्ञशोधितास्ता आपः शुन्धध्वं शुन्धन्ति यद्वस्तासामशुद्धा गुणास्ते पराजघ्नुस्तत् तस्मात् वस्तासामिदं शोधनं शुन्धामि ॥ इत्येकोऽन्वयः ॥१३॥ हे यज्ञानुष्ठातारो मनुष्या ! यद्यदिन्द्रो वृत्रतूर्य्ये युष्मा इन्द्रमवृणीत यद्यस्माश्चेन्द्रेण वृत्रतूर्य्ये ताः प्रोक्षिताः स्थ भवन्ति। तस्माद्यूयं त्वा तं यज्ञं सदाऽवृणीध्वम्। एवं च सर्वे जनाः दैव्याय कर्मणे देवयज्याया अग्नये त्वा तं जुष्टं यज्ञं प्रोक्षामि तथा चाग्नीषोमाभ्यां जुष्टं तं यज्ञं प्रोक्षामि एवं कुर्वन्तो यूयं सर्वान् पदार्थान् जनांश्च शुन्धध्वं शोधयत। यद्वोऽशुद्धा दोषास्ते सदैव पराजघ्नुर्निवृत्ता भवेयुस्तत् तस्मात् कारणादहं वो युष्माकमिदं शोधनं शुन्धामि ॥ इति द्वितीयोऽन्वयः ॥१३॥
भावार्थभाषाः - अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। ईश्वरेणाग्निसूर्य्यावेतदर्थौ रचितौ यदिमौ सर्वेषां पदार्थानां मध्ये प्रविष्टौ जलौषधिरसान् छित्त्वा, वायुं प्राप्य मेघमण्डलं गत्वाऽऽगत्य च शुद्धिसुखकारका भवेयुस्तस्मान्मनुष्यैरुत्तमसुखलाभायाग्नौ सुगन्ध्यादिपदार्थानां होमेन वायुवृष्टिजलशुद्धिद्वारा दिव्यसुखानामुत्पादनाय संप्रीत्या नित्यं यज्ञः करणीयः। यतः सर्वे दोषा नष्टा भूत्वाऽस्मिन् विश्वे सततं शुद्धा गुणाः प्रकाशिता भवेयुः। एतदर्थमहमीश्वर इदं शोधनमादिशामि यूयं परोपकारार्थानि शुद्धानि कर्माणि नित्यं कुरुतेति। एवं रीत्यैव वाय्वग्निजलगुणग्रहणप्रयोजनाभ्यां शिल्पविद्ययाऽनेकानि यानानि यन्त्रकलाश्च रचयित्वा पुरुषार्थेन सदैव सुखिनो भवतेति ॥१३॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. परमेश्वराने अग्नी व सूर्याची निर्मिती यासाठी केलेली आहे की, ते सर्व पदार्थांत प्रविष्ट होऊन त्यातील रसाचे व जलाचे सूक्ष्मरूपात परिवर्तन व्हावे. ते वायुमंडळात मिसळून पुन्हा पृथ्वीवर पर्जन्याच्या रूपाने यावेत, शुद्ध व्हावेत व त्यांच्याकडून सर्वांना सुख प्राप्त व्हावे. सर्व माणसांना सुख मिळावे यासाठी अग्नीत सुगंधित पदार्थ घालून होम करावा. वायू व वृष्टिजलाची शुद्धी व्हावी आणि त्याद्वारे सुख प्राप्त व्हावे यासाठी नित्य निष्ठेने यज्ञ करावा. यज्ञामुळे जगातील सर्व रोग नष्ट व्हावेत. वातावरण शुद्धी व्हावी आणि त्याद्वारे सुख प्राप्त व्हावे नित्य यज्ञ करावा, यज्ञामुळे जगातील सर्व रोग नष्ट व्हावेत, वातावरण शुद्धी व्हावी या हेतूने मी (ईश्वर) यज्ञाद्वारे शुद्ध वातावरण करावे, असा तुम्हाला उपदेश करतो.
टिप्पणी: हे माणसांनो ! तुम्ही परोपकार करण्यासाठी सदैव चांगले कर्म करा. पूर्वोक्त वायू, अग्नी, जल यांचा शिल्पविद्येमध्ये प्रयोग करून आपल्या पुरुषार्थाने याने इत्यादी यंत्रे तयार करून सुख प्राप्त करा.