वांछित मन्त्र चुनें
आर्चिक को चुनें

ता꣢भि꣣रा꣡ ग꣢च्छतं न꣣रो꣢पे꣣द꣡ꣳ सव꣢꣯नꣳ सु꣣त꣢म् । इ꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ सो꣡म꣢पीतये ॥९९३॥

(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)
स्वर-रहित-मन्त्र

ताभिरा गच्छतं नरोपेदꣳ सवनꣳ सुतम् । इन्द्राग्नी सोमपीतये ॥९९३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ता꣡भिः꣢꣯ । आ । ग꣣च्छतम् । नरा । उ꣡प꣢꣯ । इ꣣द꣢म् । स꣡व꣢꣯नम् । सु꣣त꣢म् । इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । सो꣡म꣢꣯पीतये । सो꣡म꣢꣯ । पी꣣तये ॥९९३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 993 | (कौथोम) 3 » 2 » 10 » 3 | (रानायाणीय) 6 » 3 » 4 » 3


बार पढ़ा गया

हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में फिर वही विषय है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (नरा) नेता (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन एवं राजा और सेनापति ! (इदं सवनम् उप सुतम्) तुम्हारे लिए यह उद्बोधन स्तोत्र गाया गया है। तुम (ताभिः) उन पूर्वमन्त्रोक्त लाख उदात्त कामनाओं के साथ(सोमपीतये) वीररस के पानार्थ (आगच्छतम्) आओ ॥३॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्य के आत्मा में तथा राजा एवं सेनाध्यक्ष में जो बहुत सी महत्त्वाकाङ्क्षाएँ रहती हैं, वे वीरता से ही सिद्ध की जा सकती हैं। आध्यात्मिक उत्कर्ष भी वीरता से ही सम्भव है, आलसीपन से नहीं ॥३॥ इस खण्ड में अग्नि की स्तुति द्वारा परमात्मा की स्तुति का वर्णन करने से, मित्र-वरुण नाम से परमात्मा-जीवात्मा एवं प्राण-अपान का वर्णन होने से, इन्द्र नाम से जीवात्मा को उद्बोधन होने से, इन्द्राग्नी नाम से आत्मा और मन को उद्बोधन होने से तथा प्रसङ्गतः मित्र-वरुण नाम से राष्ट्रपति एवं प्रधानमन्त्री तथा अध्यापक एवं उपदेशक और इन्द्राग्नी नाम से राजा एवं सेनापति के भी कर्त्तव्य आदि कथित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिए ॥ षष्ठ अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥

बार पढ़ा गया

संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि स एव विषय उच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (नरा) नरौ नेतारौ (इन्द्राग्नी) आत्ममनसी नृपतिसेनापती वा ! (इदं सवनम् उप सुतम्)युवाभ्याम् इदम् उद्बोधनस्तोत्रं गीतमस्ति। युवाम् (ताभिः) पूर्वमन्त्रोक्ताभिः नियुद्भिः लक्षसंख्यकाभिः उदात्ताभिः कामनाभिः सह (सोमपीतये) वीररसस्य पानाय (आ गच्छतम्) आयातम् ॥३॥२

भावार्थभाषाः -

मनुष्यस्यात्मनि नृपतौ सेनाध्यक्षे वा या बह्व्यो महत्त्वाकाङ्क्षास्तिष्ठन्ति ता वीरतयैव साद्धुं शक्यन्ते। आध्यात्मिकोत्कर्षोऽपि वीरतयैव संभवति न त्वलसत्वेन ॥३॥ अस्मिन् खण्डेऽग्निस्तुत्या परमात्मस्तुतिवर्णनाद् मित्रावरुणनाम्ना परमात्मजीवात्मनोः प्राणापानयोश्च वर्णनाद्, इन्द्रनाम्ना जीवात्मन उद्बोधनाद्, इन्द्राग्निनाम्नाऽऽत्ममनसोरुद्बोधनात्, प्रसङ्गतश्च मित्रावरुणनाम्ना राष्ट्रपतिप्रधानमन्त्रिणोरध्यापकोपदेशकयोश्च, इन्द्राग्निनाम्ना च नृपतिसेनापत्योः कर्तव्यादिकथनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥

टिप्पणी: १. ऋ० ६।६०।९। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं विद्वत्पक्षे व्याख्यातवान्।