इ꣡न्द्र꣢ जु꣣ष꣢स्व꣣ प्र꣢ व꣣हा꣡ या꣢हि शूर꣣ ह꣡रि꣢ह । पि꣡बा꣢ सु꣣त꣡स्य꣢ म꣣ति꣡र्न मधो꣢꣯श्चका꣣न꣢꣫श्चारु꣣र्म꣡दा꣢य ॥९५२॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)इन्द्र जुषस्व प्र वहा याहि शूर हरिह । पिबा सुतस्य मतिर्न मधोश्चकानश्चारुर्मदाय ॥९५२॥
इ꣡न्द्र꣢꣯ । जु꣣ष꣡स्व꣢ । प्र । व꣣ह । आ꣢ । या꣣हि । शूर । ह꣡रि꣢꣯ह । पि꣡ब꣢꣯ । सु꣣त꣡स्य꣢ । म꣣तिः꣢ । न । म꣡धोः꣢꣯ । च꣣कानः꣢ । चा꣡रुः꣢꣯ । म꣡दा꣢꣯य ॥९५२॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम मन्त्र में जीवात्मा का विषय है।
हे (इन्द्र) जीवात्मन् ! तू (जुषस्व) प्रसन्न हो, (प्र वह) शरीरयात्रा को भली-भाँति वहन कर। हे (शूर) वीर, हे (हरिह) ज्ञानेन्द्रिय एवं कर्मेन्द्रियों से व्यवहार करनेवाले ! (तू आ याहि) आ। तू (सुतस्य) तैयार हुए वीररस का (पिब) पान कर। (मतिः न) मेधावी पुरुष के समान (चारुः) श्रेष्ठ तू (मदाय) उत्साह के लिए (मधोः) मधुर भक्ति-रस का (चकानः) प्रेमी बन ॥१॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥१॥
मनुष्य का आत्मा वीररस का पान कर, उत्साहवान् होकर, भक्तिरस की तरङ्गों से तरङ्गित होकर कठिन से कठिन कार्यों को कर सकता है ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ जीवात्मविषय उच्यते।
हे (इन्द्र) जीवात्मन् ! त्वम् (जुषस्व) प्रीयस्व, (प्र वह) देहयात्रां प्रकर्षेण वह। हे (शूर) वीर, हे (हरिह) ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियाभ्यां व्यवहर्तः ! [हरिभ्यां ज्ञानकर्मेन्द्रियाभ्यां हन्ति गच्छति व्यवहरतीति हरिहा, तत्संबुद्धौ।] त्वम् (आ याहि) आगच्छ। त्वम् (सुतस्य) अभिषुतस्य वीररसस्य (पिब) पानं कुरु। (मतिः न) मेधावी पुरुष इव। [मतिरिति मेधाविनाम। निघं० ३।१५।] (चारुः) श्रेष्ठः त्वम् (मदाय) उत्साहाय (मधोः) मधुरस्य भक्तिरसस्य (चकानः) कामयमानः भव ॥१॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥१॥
मनुष्यस्यात्मा वीररसं पीत्वोत्साहवान् भूत्वा भक्तिरसतरङ्गैस्तरङ्गितो भूत्वा कठिनतमान्यपि कार्याणि कर्तुं शक्नोति ॥१॥