अ꣣यं꣡ यथा꣢꣯ न आ꣣भु꣢व꣣त्त्व꣡ष्टा꣢ रू꣣पे꣢व꣣ त꣡क्ष्या꣢ । अ꣣स्य꣢꣫ क्रत्वा꣣ य꣡श꣢स्वतः ॥९४७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)अयं यथा न आभुवत्त्वष्टा रूपेव तक्ष्या । अस्य क्रत्वा यशस्वतः ॥९४७॥
अ꣣य꣢म् । य꣡था꣢꣯ । नः꣣ । आ꣣भु꣡व꣢त् । आ꣣ । भु꣡व꣢꣯त् । त्व꣡ष्टा꣢꣯ । रू꣣पा꣢ । इ꣣व । त꣡क्ष्या꣢꣯ । अ꣣स्य꣢ । क्र꣡त्वा꣢꣯ । य꣡श꣢꣯स्वतः ॥९४७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि क्यों हम परमेश्वर के अभिमुख हों।
हम परमेश्वर के अभिमुख होवें (यथा) जिससे, वह (नः) हममें, हमारे जीवनों में (आभुवत्) रम जाए, (त्वष्टा) बढ़ई (तक्ष्या रूपा इव) जैसे घड़े जानेवाले रूपों में रम जाता है। हम (यशस्वतः) यशस्वी (अस्य) इस परमेश्वर के (क्रत्वा) ज्ञान एवं कर्म से, संयुक्त होवें ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥
जगदीश्वर यदि हमारे जीवनों में व्याप्त हो जाता है तो सदा ही अच्छे-बुरे के विवेक से युक्त हम पुण्य कर्मों को ही करते हुए कीर्तिशाली होते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ कुतो वयं परमेश्वरस्याभिमुखाः स्यामेत्याह।
वयमग्निं परमेश्वरमभिमुखाः भवेम (यथा) येन (अयम्) एषः परमेश्वरः (नः) अस्मान्, अस्माकं जीवनानीत्यर्थः (आभुवत्) व्याप्नुयात्। कथमिव ? (त्वष्टा) वर्धकिः (तक्ष्या रूपा इव) तक्षणीयानि रूपाणि यथा व्याप्नोति तथा। [शेश्छन्दसि बहुलम्। अ० ६।१।७० इति शेर्लोपः।] (यशस्वतः) कीर्तिमतः (अस्य) अग्नेः परमेश्वरस्य (क्रत्वा) क्रतुना प्रज्ञया कर्मणा वा, वयमनुगृहीताः स्याम ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
जगदीश्वरो यद्यस्माकं जीवनानि व्याप्नोति तर्हि सदैव सदसद्विवेकिनः पुण्यकर्माणः सन्तो वयं कीर्तिभाजो भवामः ॥२॥