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सो꣡मः꣢ पवते जनि꣣ता꣡ म꣢ती꣣नां꣡ ज꣢नि꣣ता꣢ दि꣣वो꣡ ज꣢नि꣣ता꣡ पृ꣢थि꣣व्याः꣢ । ज꣣निता꣡ग्नेर्ज꣢꣯नि꣣ता꣡ सूर्य꣢꣯स्य जनि꣣ते꣡न्द्र꣢स्य जनि꣣तो꣡त विष्णोः꣢꣯ ॥९४३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

सोमः पवते जनिता मतीनां जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः । जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य जनितेन्द्रस्य जनितोत विष्णोः ॥९४३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सो꣡मः꣢꣯ । प꣣वते । जनिता꣢ । म꣣तीना꣢म् । ज꣣निता꣢ । दि꣣वः꣢ । ज꣣निता꣢ । पृ꣣थिव्याः꣢ । ज꣣निता꣢ । अ꣣ग्नेः꣢ । ज꣣निता꣢ । सू꣡र्य꣢꣯स्य । ज꣣निता꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । ज꣣नि꣢ता । उ꣣त꣢ । वि꣡ष्णोः꣢꣯ ॥९४३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 943 | (कौथोम) 3 » 1 » 19 » 1 | (रानायाणीय) 5 » 6 » 4 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ५२७ पर परमात्मा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ भी वही विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सोमः) सकल जगत् का उत्पत्तिकर्ता परमेश्वर (पवते) सर्वगत है, सर्वान्तर्यामी है, जो (मतीनाम्) बुद्धियों का (जनिता) उत्पादक, (दिवः) द्युलोक का (जनिता) उत्पादक, (पृथिव्याः) पृथ्वीलोक का (जनिता) उत्पादक, (अग्नेः) आग का (जनिता)उत्पादक, (सूर्यस्य) सूर्य का (जनिता) उत्पादक, (इन्द्रस्य) बिजली का (जनिता) उत्पादक, (उत) और (विष्णोः) व्यापक सूत्रात्मा प्राण का (जनिता) उत्पादक है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मा ने ही इन लोकलोकान्तरों को और उनमें स्थित सब अद्भुत पदार्थों को रचा है, क्योंकि जो भी उत्पन्न होता है, उसका कर्ता अवश्य होता है, यह नियम है और हम जैसे लोगों में जगत् के रचने का सामर्थ्य नहीं है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५२७ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्रापि स एव विषयो वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सोमः) सकलजगदुत्पादकः परमेश्वरः (पवते) सर्वत्र गच्छति, सर्वान्तर्यामी अस्ति। [पवते गतिकर्मा निघं० २।१४] यः (मतीनाम्) बुद्धीनां (जनिता) जनयिता, (दिवः) द्युलोकस्य (जनिता) जनयिता, (पृथिव्याः) पृथिवीलोकस्य (जनिता) जनयिता, (अग्नेः) वह्नेः(जनिता) जनयिता, (सूर्यस्य) आदित्यस्य (जनिता)जनयिता, (इन्द्रस्य) विद्युतः (जनिता) जनयिता, (उत) अपि च (विष्णोः) व्यापकस्य सूत्रात्मनः प्राणस्य (जनिता) जनयिता वर्तते ॥१॥

भावार्थभाषाः -

परमात्मनैवेमानि लोकलोकान्तराणि तत्रस्थाः सर्वेऽद्भुताः पदार्थाश्च रचिताः सन्ति, यदुत्पद्यते तस्य कर्त्ताऽवश्यमस्तीति नियमाद्, अस्मादृशां च जगत्कर्तृत्वसामर्थ्याभावात् ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।९६।५, साम० ५२७।