प्र꣢प्र꣣ क्ष꣡या꣢य꣣ प꣡न्य꣢से꣣ ज꣡ना꣢य꣣ जु꣡ष्टो꣢ अ꣣द्रु꣡हः꣢ । वी꣣꣬त्य꣢꣯र्ष꣣ प꣡नि꣢ष्टये ॥९३७॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)प्रप्र क्षयाय पन्यसे जनाय जुष्टो अद्रुहः । वीत्यर्ष पनिष्टये ॥९३७॥
प्र꣡प्र꣢꣯ । प्र । प्र꣣ । क्ष꣡या꣢꣯य । प꣡न्य꣢꣯से । ज꣡ना꣢꣯य । जु꣡ष्टः꣢꣯ । अ꣣द्रु꣡हः꣢ । अ꣣ । द्रु꣡हः꣢꣯ । वी꣣ति꣢ । अ꣣र्ष । प꣡नि꣢꣯ष्टये ॥९३७॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में नवस्नातक को कहा जा रहा है।
हे सोम अर्थात् विद्यारस से स्नान किये हुए नवस्नातक ! (जुष्टः) लोगों का प्रिय, (अद्रुहः) द्रोह न करनेवाला तू (क्षयाय) प्रजाओं में सद्गुण आदि के निवास के लिए, (पन्यसे जनाय) अतिशय स्तोता जन उत्पन्न करने के लिए और (पनिष्टये) शुद्ध व्यवहार के लिए (वीती) तीव्रगति से (प्र प्र अर्ष) विचरण कर ॥३॥
नवस्नातकों का यह कर्त्तव्य है कि वे गुरुकुल से बाहर आकर वेदार्थ का उपदेश करते हुए लोगों को श्रेष्ठ गुण कर्मों से युक्त, परमेश्वर के स्तोता और शुद्ध व्यवहारवाला बनायें ॥३॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ नवस्नातक उच्यते।
हे सोम विद्यारसस्नात नवस्नातक ! (जुष्टः) जनानां प्रिय, (अद्रुहः) अद्रोग्धा त्वम् (क्षयाय) प्रजासु सद्गुणादीनां निवासाय। [क्षि निवासगत्योः। ‘क्षयो निवासे’। अ० ६।१।२०१ इत्याद्युदात्तः।] (पन्यसे जनाय) पनीयसे अतिशयेन स्तोत्रे जनाय, तादृशं जनमुत्पादयितुमिति भावः। [पण व्यवहारे स्तुतौ च। पनति स्तौतीति पनः, अतिशयेन पनः पनीयान्, तस्मै पन्यसे। ईकारलोपश्छान्दसः।] (पनिष्टये) शुद्धव्यवहाराय च (वीती) वीत्या तीव्रगत्या। [वी गत्यादौ। वीती इत्यस्मात् तृतीयैकवचने ‘सुपां सुलुक्०’ इति पूर्वसवर्णदीर्घः।] (प्र प्र अर्ष) प्रकर्षेण विचर ॥३॥
नवस्नातकानामिदं कर्तव्यं यत्ते गुरुकुलाद् बहिरागत्य वेदार्थानुपदिशन्तो जनान् सद्गुणकर्मयुक्तान् परमेश्वरस्तोतॄन् शुद्धव्यवहारनिष्ठांश्च सम्पादयेयुः ॥३॥