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आ꣡ योनि꣢꣯मरु꣣णो꣡ रु꣢ह꣣द्ग꣢म꣣दि꣢न्द्रो꣣ वृ꣡षा꣢ सु꣣त꣢म् । ध्रु꣣वे꣡ सद꣢꣯सि सीदतु ॥९२५॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

आ योनिमरुणो रुहद्गमदिन्द्रो वृषा सुतम् । ध्रुवे सदसि सीदतु ॥९२५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ । यो꣡नि꣢꣯म् । अ꣣रुणः꣢ । रु꣣हत् । ग꣡म꣢꣯त् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । वृ꣡षा꣢꣯ । सु꣣त꣢म् । ध्रु꣣वे꣢ । स꣡द꣢꣯सि । सी꣡द꣢꣯तु ॥९२५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 925 | (कौथोम) 3 » 1 » 12 » 2 | (रानायाणीय) 5 » 4 » 3 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में ब्रह्मानन्द का विषय तथा गुरु-शिष्यों का विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—ब्रह्मानन्द के पक्ष में। (अरुणः) ज्योतिर्मय ब्रह्मानन्दरूप सोम (योनिम्) हृदयरूप गृह में (आ रुहत्) आरूढ़ होता है। (वृषा) बलवान् (इन्द्रः) अन्तरात्मा (सुतम्) अभिषुत ब्रह्मानन्दरूप सोमरस को (गमत्) प्राप्त करता है। हम चाहते हैं कि वह ब्रह्मानन्द (ध्रुवे सदसि) अविचल आत्मारूप सदन में (सीदतु) स्थित हो जाए, अर्थात् उसका अङ्ग बन जाए ॥२॥ द्वितीय—गुरु-शिष्य के विषय में। (अरुणः) तेज से चमकता हुआ विद्यार्थी (योनिम्) गुरुकुल में (आ रुहत्) प्रविष्ट होता है। (वृषा) विद्या की वर्षा करनेवाला (इन्द्रः) आचार्य (सुतम्) पुत्रतुल्य उस विद्यार्थी के पास (गमत्) उसका अभिनन्दन करने के लिए जाता है। वह विद्यार्थी (धुवे) स्थिर (सदसि) विद्यागृह में (सीदतु) निवास करे, अर्थात् जब तक विद्या पूर्ण न हो जाए तब तक निश्चिन्त होकर वहाँ रहे ॥२॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है ॥

भावार्थभाषाः -

जैसे मनुष्य का आत्मा ब्रह्मानन्द-रस के पाने से कृतार्थ हो, वैसे ही गुरुकुल में प्रविष्ट विद्यार्थी विद्याओं में पारङ्गत होकर कृतकृत्य हो ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ ब्रह्मानन्दविषयं गुरुशिष्यविषयं च वर्णयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—ब्रह्मानन्दपक्षे। (अरुणः) आरोचमानः ब्रह्मानन्दसोमः (योनिम्) हृदयगृहम् (आ रुहत्) आरोहति। (वृषा) बलवान् (इन्द्रः) अन्तरात्मा (सुतम्) अभिषुतं ब्रह्मानन्दरूपं सोमरसम् (गमत्) प्राप्नोति। वयं कामयामहे यत् स ब्रह्मानन्दः (ध्रुवे सदसि) अविचले आत्मसदने (सीदतु) उपविशतु, तदङ्गतां गच्छत्विति भावः ॥२॥ द्वितीयः—गुरुशिष्यविषये। (अरुणः) आरोचमानः विद्यार्थी (योनिम्) गुरुगृहम् (आ रुहत्) आरोहति, प्रविशतीत्यर्थः। (वृषा) विद्यावर्षकः (इन्द्रः) आचार्यः (सुतम्) पुत्रतुल्यं तं विद्यार्थिनम् (गमत्) अभिनन्दितुं गच्छति। स विद्यार्थी (ध्रुवे) स्थिरे (सदसि) विद्यागृहे (सीदतु) निवसतु, आविद्यासमाप्तिं तत्र निश्चिन्ततया तिष्ठत्वित्यर्थः ॥२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यथा मनुष्यस्यात्मा ब्रह्मानन्दपानेन कृतार्थो जायेत तथा गुरुकुलं प्रविष्टो विद्यार्थी विद्यासु पारं गत्वा कृतकृत्यो भवेत् ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।४०।२ ‘गम॒दिन्दं॒ वृषा॑ सु॒तः। ध्रु॒वे सद॑सि सीदति’ इति पाठः।