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त꣢वा꣣हं꣡ नक्त꣢꣯मु꣣त꣡ सो꣢म ते꣣ दि꣡वा꣢ दुहा꣣नो꣡ ब꣢भ्र꣣ ऊ꣡ध꣢नि । घृ꣣णा꣡ तप꣢꣯न्त꣣म꣢ति꣣ सू꣡र्यं꣢ प꣣रः꣡ श꣢कु꣣ना꣡ इ꣢व पप्तिम ॥९२३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

तवाहं नक्तमुत सोम ते दिवा दुहानो बभ्र ऊधनि । घृणा तपन्तमति सूर्यं परः शकुना इव पप्तिम ॥९२३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त꣡व꣢꣯ । अ꣡ह꣢म् । न꣡क्त꣢꣯म् । उ꣣त꣢ । सो꣣म । ते । दि꣡वा꣢꣯ । दु꣣हानः꣢ । ब꣣भ्रो । ऊ꣡ध꣢꣯नि । घृ꣣णा꣢ । त꣡प꣢꣯न्तम् । अ꣡ति꣢꣯ । सू꣡र्य꣢꣯म् । प꣣रः꣢ । श꣣कुनाः꣢ । इ꣣व । पप्तिम ॥९२३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 923 | (कौथोम) 3 » 1 » 11 » 2 | (रानायाणीय) 5 » 4 » 2 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आचार्य की सहायता से दोषों को दूर करके अब परमात्मा से निवेदन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (बभ्रो) भरण-पोषण करनेवाले (सोम) आनन्दरसागार परमेश्वर ! (तव) तेरा (अहम्) मैं उपासक (ते) तेरे (ऊधनि) आनन्दरस के कोश में से (नक्तम्) रात्रि को (उत) और (दिवा) दिन में भी (दुहानः) आनन्दरस को दुह रहा हूँ और (घृणा) तेज से (तपन्तम्) तपते हुए (सूर्यम्) सूर्य को भी (अति) अतिक्रान्त करके अर्थात् सूर्य से भी अधिक तेजस्वी होते हुए हम (शकुनाः इव) पक्षियों के समान (परः) भौतिक जगत् से परे विद्यमान तुझ परमात्मा की ओर (पप्तिम) उड़ रहे हैं ॥२॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्य को चाहिए कि वह तेजस्वी और तपस्वी होकर परमात्मा का साक्षात्कार करके उसके आनन्द-रस का आस्वाद लेकर मोक्ष पद को पाये ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

आचार्यसाहाय्येन दोषान् दूरीकृत्य सम्प्रति परमात्मानमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (बभ्रो) भरणपोषणकर्तः (सोम) आनन्दरसागार परमेश्वर ! (तव) त्वदीयः (अहम्) उपासकः (ते) तव (ऊधनि) आनन्दरसकोशात्। [पञ्चम्यर्थे सप्तमी।] (नक्तम्) रात्रौ (उत) अपि च (दिवा) दिवसे (दुहानः) आनन्दरसम् आददानः अस्मि। किञ्च, (घृणा) तेजसा। [घृणिः इति ज्वलतो नामधेयम्। निरु० १।१७। तृतीयैकवचने ‘सुपां सुलुक्०’ इति विभक्तेर्डादेशः।] (तपन्तम्) ज्वलन्तम् (सूर्यम्) आदित्यम् अपि (अति) अतिक्रम्य, सूर्यादप्यधिकतरं तेजस्विनः सन्तः इत्यर्थः (शकुनाः इव) पक्षिणः इव (परः) भौतिकाज्जगतः परस्तात् विद्यमानं परमात्मानं त्वां प्रति (पप्तिम) वयं पतामः। [पत्लृ धातोर्लडर्थे लिटि ‘तनिपत्योश्छन्दसि’। अ० ६।४।९९ इत्युपधालोपः] ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यस्तेजस्वी तपस्वी च भूत्वा परमात्मानं साक्षात्कृत्य तस्यानन्दरसमास्वाद्य मोक्षपदं लभेत ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०७।२०, ‘तवाहं’ ‘दुहानो’ इत्यत्र क्रमेण ‘उ॒ताहं’ ‘स॒ख्याय॒’ इति पाठः।