मा꣡ पा꣢प꣣त्वा꣡य꣢ नो न꣣रे꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ मा꣡भिश꣢꣯स्तये । मा꣡ नो꣢ रीरधतं नि꣣दे꣢ ॥९१८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)मा पापत्वाय नो नरेन्द्राग्नी माभिशस्तये । मा नो रीरधतं निदे ॥९१८॥
मा । पा꣣पत्वा꣡य꣢ । नः꣣ । नरा । इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । मा । अ꣣भि꣡श꣢स्तये । अ꣣भि꣢ । श꣣स्तये । मा꣢ । नः꣣ । रीरधतम् । निदे꣢ ॥९१८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
आगे आत्मा और मन से प्रार्थना करते हैं।
हे (इन्द्राग्नी) आत्मा और मन ! (नरा) नेतृत्व करनेवाले तुम दोनों (मा) न तो (पापत्वाय) पाप कर्म के, (मा) न (अभिशस्तये) हिंसा के और (मा) न ही (नः) हमें (निदे) निन्दक के (रीरधतम्) वश में करो ॥३॥
मनुष्यों को चाहिए कि आत्मा और मन को उद्बोधन देकर पाप, हिंसा, निन्दा आदि से मुक्ति पायें ॥३॥ इस खण्ड में परमेश्वर के स्वरूप, परमेश्वर-स्तुति, परमात्म-प्राप्ति, आत्मा-मन तथा प्रसङ्गतः राजा और प्रधानमन्त्री का विषय वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ पञ्चम अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथात्ममनसी प्रार्थयते।
हे (इन्द्राग्नी) आत्ममनसी ! (नरा) नरौ नेतारौ युवाम् (मा) नैव (पापत्वाय) पापकर्मणे, (मा) नैव (अभिशस्तये) हिंसायै, (मा) नैव च (नः) अस्मान् (निदे) निन्दकाय (रीरधतम्) वशे कुरुतम्। [रध हिंसासंराध्योः, दिवादिः, ण्यन्ताल्लुङि रूपम्। ‘बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि’ इत्यडभावः] ॥३॥
आत्ममनसी उद्बोध्य मनुष्यैः पापहिंसानिन्दादिभ्यो मुक्तिः प्राप्तव्या ॥३॥ अस्मिन् खण्डे परमेश्वरस्वरूपस्य, परमेश्वरस्तुतेः, परमात्मप्राप्तेः, आत्ममनसोः, प्रसङ्गतश्च नृपतिप्रधानमन्त्रिणो विषयवर्णना- देतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन संगतिर्वेद्या ॥