स꣣मीचीना꣡ अ꣢नूषत꣣ ह꣡रि꣢ꣳ हिन्व꣣न्त्य꣡द्रि꣢भिः । इ꣢न्दु꣣मि꣡न्द्रा꣢य पी꣣त꣡ये꣢ ॥९०३॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)समीचीना अनूषत हरिꣳ हिन्वन्त्यद्रिभिः । इन्दुमिन्द्राय पीतये ॥९०३॥
समी꣣चीनाः꣢ । स꣣म् । ईचीनाः꣢ । अ꣣नूषत । ह꣡रि꣢꣯म् । हि꣣न्वन्ति । अ꣡द्रि꣢꣯भिः । अ । द्रि꣣भिः । इ꣡न्दु꣢꣯म् । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । पी꣣त꣡ये꣢ ॥९०३॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में कौन ब्रह्मानन्द को प्राप्त करते हैं, इसका कथन है।
जो उपासक लोग (समीचीनाः) परस्पर मिलकर (अनूषत) पवित्रकर्ता परमात्मा की स्तुति करते हैं और (हरिम्) अज्ञान, दुःख आदि को हरनेवाले उसे (अद्रिभिः) अखण्डित ध्यानों से (हिन्वन्ति) अपने अन्दर बढ़ाते हैं, वे (इन्दुम्) सराबोर करनेवाले ब्रह्मानन्द-रस को (इन्द्राय) अपने जीवात्मा को (पातवे) पिलाने में समर्थ होते हैं ॥६॥
मनुष्यों को योग्य है कि ध्यानयोग द्वारा परमात्मा की आराधना करके ब्रह्मानन्द को प्राप्त करें ॥६॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ के ब्रह्मानन्दं प्राप्नुवन्तीत्याह।
ये उपासकाः (समीचीनाः) परस्परं संगताः सन्तः (अनूषत) पवमानं परमात्मानं स्तुवन्ति, अपि च (हरिम्) अज्ञानदुःखादीनां हर्तारं तम् (अद्रिभिः) अखण्डितैः ध्यानैः (हिन्वन्ति) स्वात्मनि वर्धयन्ति। [हि गतौ वृद्धौ च।] ते (इन्दुम्) क्लेदकं ब्रह्मानन्दरसम् (इन्द्राय) स्वजीवात्मने (पातवे) पाययितुं प्रभवन्ति इति शेषः ॥६॥
ध्यानयोगेन परमात्मानमाराध्य जना ब्रह्मानन्दं प्राप्तुमर्हन्ति ॥६॥