सु꣣त꣡ ए꣢ति प꣣वि꣢त्र꣣ आ꣢꣫ त्विषिं꣣ द꣡धा꣢न꣣ ओ꣡ज꣢सा । वि꣣च꣡क्षा꣢णो विरो꣣च꣡य꣢न् ॥९०१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)सुत एति पवित्र आ त्विषिं दधान ओजसा । विचक्षाणो विरोचयन् ॥९०१॥
सु꣣तः꣢ । ए꣣ति । पवि꣡त्रे꣢ । आ । त्वि꣡षि꣢꣯म् । द꣡धा꣢꣯नः । ओ꣡ज꣢꣯सा । वि꣡च꣡क्षा꣢णः । वि꣣ । च꣡क्षा꣢꣯णः । वि꣣रो꣡चय꣢न् । वि꣣ । रोच꣡य꣢न् ॥९०१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में ब्रह्मानन्द-प्रदाता परमेश्वर का वर्णन है।
(सुतः) जिसने अपने में से आनन्दरस को प्रवाहित किया है, ऐसा यह सोमनामक परमात्मा (त्विषिम्) दीप्ति को (दधानः) धारण करता हुआ (ओजसा) बलपूर्वक (पवित्रे) पवित्र हृदय वा आत्मा में (आ एति) आ रहा है और (विचक्षाणः) विशेष रूप से अन्तर्दृष्टि को दे रहा है तथा (विरोचयन्) विशेष कान्ति को प्रदान कर रहा है ॥४॥
परमात्मा के साथ मैत्री स्थापित करता हुआ उपासक अन्तर्दृष्टि तथा ब्रह्मतेज से युक्त होकर परमानन्दमय हो जाता है ॥४॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ ब्रह्मानन्दप्रदाता परमेश्वरो वर्ण्यते।
(सुतः) परिस्रुतानन्दरसः एष सोमः परमात्मा (त्विषिम्) दीप्तिम् (दधानः) धारयन् (ओजसा) बलेन (पवित्रे) परिपूते हृदये आत्मनि वा (आ एति) आगच्छति। तदानीं च (विचक्षाणः)विशेषेण अन्तर्दृष्टिं प्रयच्छन् (विरोचयन्) विशेषेण प्रदीपयंश्च भवति ॥४॥
परमात्मना सख्यं स्थापयन्नुपासकोऽन्तर्दृष्ट्या ब्रह्मतेजसा च युक्तः परमानन्दवान् संजायते ॥४॥