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प꣡रि꣢ णः शर्म꣣य꣢न्त्या꣣ धा꣡र꣢या सोम वि꣣श्व꣡तः꣢ । स꣡रा꣢ र꣣से꣡व꣢ वि꣣ष्ट꣡प꣢म् ॥८९७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

परि णः शर्मयन्त्या धारया सोम विश्वतः । सरा रसेव विष्टपम् ॥८९७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प꣡रि꣢꣯ । नः꣣ । शर्मय꣡न्त्या꣢ । धा꣡र꣢꣯या । सो꣣म । विश्व꣡तः꣢ । स꣡र꣢꣯ । र꣣सा꣢ । इ꣣व । विष्ट꣡प꣢म् ॥८९७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 897 | (कौथोम) 3 » 1 » 3 » 6 | (रानायाणीय) 5 » 1 » 3 » 6


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा तथा आचार्य से प्रार्थना की गयी है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) रसागार परमात्मन् वा आचार्य ! आप (शर्मयन्त्या) सुख देनेवाली (धारया) अध्यात्मप्रकाश की धारा वा ज्ञान की धारा के साथ (विश्वतः) सब ओर से (नः) हमें (परि सर) प्राप्त हों। (रसा इव) जैसे रसीली वर्षा (विष्टपम्) भूलोक को प्राप्त होती है ॥६॥ यहाँ उपमालङ्कार है। ‘सरा, रसे’ में वृत्त्यनुप्रास है ॥६॥

भावार्थभाषाः -

जैसे बादल में से पर्वतों पर हुई वर्षा नदीरूप में भूमि के प्रदेशों को सींचती हुई समुद्र को प्राप्त होती है, वैसे ही परमात्मा वा आचार्य से निकली हुई अन्तःप्रकाश की धारा मन, बुद्धि आदियों को सींचती हुई जीवात्मा को प्राप्त होती है ॥६॥ इस खण्ड में परमेश्वर और उपासक, परमेश्वर और उसके रचे हुए सूर्य एवं परमात्मा और आचार्य का विषय वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ पञ्चम अध्याय में पञ्चम खण्ड समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्माऽऽचार्यश्च प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) रसागार परमात्मन् आचार्य वा ! त्वम् (शर्मयन्त्या) सुखयन्त्या (धारया) अध्यात्मप्रकाशधारया ज्ञानधारया वा सह (विश्वतः) सर्वतः (नः) अस्मान् (परि सर) परिप्राप्नुहि। [सृ गतौ। संहितायां द्व्यचोऽतस्तिङः। अ० ६।३।१३५ इत्यनेन दीर्घः।] (रसा इव) रसमयी वृष्टिः यथा (विष्टपम्) भूलोकं प्राप्नोति तथा ॥६॥ अत्रोपमालङ्कारः। ‘सरा, रसे’ इत्यत्र वृत्त्यनुप्रासः ॥६॥

भावार्थभाषाः -

यथा पर्जन्यात् पर्वतेषु जाता वृष्टिर्नदीरूपेण भूप्रदेशान् सिञ्चन्ती समुद्रं प्राप्नोति तथैव परमात्मन आचार्याद् वा निःसृतान्तःप्रकाशधारा ब्रह्मानन्दधारा ज्ञानधारा वा मनोबुद्ध्यादीन् सिञ्चन्ती जीवात्मानं प्राप्नोति ॥६॥ अस्मिन् खण्डे परमेश्वरोपासकयोः परमेश्वरतद्रचितसूर्ययोः, परमात्माचार्ययोश्च विषयस्य वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन सह संगतिरस्ति ॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।४१।६।