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प꣡व꣢स्व विश्वचर्षण꣣ आ꣢ म꣣ही꣡ रोद꣢꣯सी पृण । उ꣣षाः꣢꣫ सूर्यो꣣ न꣢ र꣣श्मि꣡भिः꣢ ॥८९६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

पवस्व विश्वचर्षण आ मही रोदसी पृण । उषाः सूर्यो न रश्मिभिः ॥८९६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प꣡व꣢꣯स्व । वि꣣श्चर्षणे । विश्व । चर्षणे । आ꣢ । म꣣ही꣡इति꣢ । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । पृ꣣ण । उषाः꣢ । सू꣡र्यः꣢꣯ । न । र꣣श्मि꣡भिः꣢ ॥८९६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 896 | (कौथोम) 3 » 1 » 3 » 5 | (रानायाणीय) 5 » 1 » 3 » 5


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में फिर उन्हीं का विषय कहा गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (विश्वचर्षणे) विश्व ब्रह्माण्ड के द्रष्टा परमात्मन् वा सब विद्याओं के द्रष्टा आचार्य ! आप पवस्व अन्तःप्रकाश एवं ज्ञानरस को प्रवाहित करो। उससे (मही रोदसी) महिमामय आत्मा और मन को (आपृण) पूर्ण कर दो, (न) जैसे (उषाः) उषा और (सूर्यः) सूर्य (रश्मिभिः) किरणों से (मही रोदसी) महान् द्यावापृथिवी को पूर्ण करते हैं ॥५॥ यहाँ श्लिष्टोपमालङ्कार है ॥५॥

भावार्थभाषाः -

जैसे उषा और सूर्य के प्रकाश से द्यावापृथिवी भर जाते हैं, वैसी ही परमात्मा और आचार्य द्वारा दी गयी दिव्य अन्तर्ज्योति तथा ज्ञानज्योति से मनुष्य के आत्मा और मन परिपूर्ण होते हैं ॥५॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि तयोरेव विषयः प्रोच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (विश्वचर्षणे) विश्वब्रह्माण्डस्य द्रष्टः परमात्मन्, सर्वासां विद्यानां द्रष्टः आचार्य वा ! त्वम् (पवस्व) अन्तःप्रकाशं ज्ञानरसं वा प्रवाहय, तेन (मही रोदसी) महती आत्ममनसी (आ पृण) परिपूरय, (न) यथा (उषाः) प्रभातकान्तिः (सूर्यः) आदित्यश्च (रश्मिभिः) किरणैः (मही रोदसी) महत्यौ द्यावापृथिव्यौ आपृणाति ॥५॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः ॥५॥

भावार्थभाषाः -

यथोषसः सूर्यस्य च प्रकाशेन द्यावापृथिव्यौ प्रयूर्येते तथैव परमात्मनाचार्येण च प्रदत्तेन दिव्येनान्तर्ज्योतिषा ज्ञानज्योतिषा च मनुष्यस्यात्मा मनश्च परिपूर्येते ॥५॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।४१।५।