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प्र꣡ मꣳहि꣢꣯ष्ठाय गायत ऋ꣣ता꣡व्ने꣢ बृह꣣ते꣢ शु꣣क्र꣡शो꣢चिषे । उ꣣पस्तुता꣡सो꣢ अ꣣ग्न꣡ये꣢ ॥८७८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

प्र मꣳहिष्ठाय गायत ऋताव्ने बृहते शुक्रशोचिषे । उपस्तुतासो अग्नये ॥८७८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र꣢ । म꣡ꣳहि꣢꣯ष्ठाय । गा꣣यत । ऋता꣡व्ने꣢ । बृ꣣हते꣢ । शु꣣क्र꣡शो꣢चिषे । शु꣣क्र꣢ । शो꣣चिषे । उपस्तुता꣡सः꣢ । उ꣡प । स्तुता꣡सः꣢ । अ꣣ग्न꣡ये꣢ ॥८७८॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 878 | (कौथोम) 2 » 2 » 17 » 1 | (रानायाणीय) 4 » 6 » 1 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में १०७ क्रमाङ्क पर परमेश्वर के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ आचार्य, राजा और यज्ञाग्नि का विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (उपस्तुतासः) प्रशंसित लोगो ! तुम (मंहिष्ठाय) अतिशय दानी, (ऋताव्ने) सत्यपरायण, (बृहते) महान्, (शुक्रशोचिषे) दीप्त तेजवाले (अग्नये) अग्रनायक आचार्य, राजा वा यज्ञाग्नि के लिए (प्र गायत) प्रकृष्ट रूप से महिमागान करो ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यों को चाहिए कि धन, विद्या आदि के दाता, सत्यनिष्ठ, तेजस्वी महान् जन को ही आचार्यरूप में और राजारूप में चुनें और उन्हें उचित है कि वे बहुत लाभ देनेवाले, सत्य गुण-कर्म-स्वभाववाले, प्रदीप्त ज्वालावाले यज्ञाग्नि में मन्त्रोच्चारणपूर्वक होम किया करें ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १०७ क्रमाङ्के परमेश्वरविषये व्याख्याता। अत्राचार्यनृपतियज्ञाग्निविषय उच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (उपस्तुतासः) प्रशंसिता जनाः ! यूयम् (मंहिष्ठाय) दातृतमाय, (ऋताव्ने) सत्यपरायणाय, (बृहते) महते, (शुक्रशोचिषे) दीप्ततेजस्काय (अग्नये) अग्रनायकाय आचार्याय, नृपतये, यज्ञेषु अग्रं प्रणीताय यज्ञाग्नये वा (प्र गायत) प्रकृष्टतया महिमानं वर्णयत ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यैर्धनविद्यादीनां दाता सत्यनिष्ठस्तेजस्वी महान् जन एवाचार्यत्वेन नृपतित्वेन च वरणीयः, बहुलाभप्रदे सत्यगुणकर्मस्वभावे प्रदीप्तशोचिष्के यज्ञाग्नौ च मन्त्रोच्चारणपूर्वकं होमः कार्यः ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।१०३।८, साम–० १०७।