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देवता: इन्द्रः ऋषि: मेध्यातिथिः काण्वः छन्द: बृहती स्वर: मध्यमः काण्ड:

स्व꣡र꣢न्ति त्वा सु꣣ते꣢꣫ नरो꣣ व꣡सो꣢ निरे꣣क꣢ उ꣣क्थि꣡नः꣢ । क꣣दा꣢ सु꣣तं꣡ तृ꣢षा꣣ण꣢꣫ ओक꣣ आ꣡ ग꣢म꣣ इ꣡न्द्र꣢ स्व꣣ब्दी꣢व꣣ व꣡ꣳस꣢गः ॥८६५॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

स्वरन्ति त्वा सुते नरो वसो निरेक उक्थिनः । कदा सुतं तृषाण ओक आ गम इन्द्र स्वब्दीव वꣳसगः ॥८६५॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्व꣡रन्ति꣢꣯ । त्वा꣣ । सुते꣢ । न꣡रः꣢꣯ । व꣡सो꣢꣯ । नि꣣रेके꣢ । उ꣣क्थि꣡नः꣢ । क꣣दा꣢ । सु꣣त꣢म् । तृ꣣षाणः꣡ । ओ꣡कः꣢꣯ । आ । ग꣣मः । इ꣡न्द्र꣢꣯ । स्व꣣ब्दी꣢ । इ꣣व । व꣡ꣳस꣢꣯गः ॥८६५॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 865 | (कौथोम) 2 » 2 » 12 » 2 | (रानायाणीय) 4 » 4 » 2 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा और आचार्य को पुकारा गया है।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे (वसो) उपासकों के धनरूप तथा उनमें सद्गुणों का निवास करानेवाले परमात्मन् ! (उक्थिनः) स्तोता (नरः) मनुष्य (सुते) श्रद्धारस के (निरेके) उमड़ने पर (त्वा) आपको (स्वरन्ति) पुकार रहे हैं। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन्, दुर्गुणविदारक ! (कदा) कब (सुतम्) अभिषुत श्रद्धारस के (तृषाणः) प्यासे आप (ओकः) हृदय-सदन में (आगमः) आओगे, (इव) जैसे (वंसगः) सेवनीय गतिवाला, (स्वब्दी) उत्कृष्ट वृष्टि जलों का दाता सूर्य (तृषाणः) जल का प्यासा होता हुआ, किरणों द्वारा (ओकः) भूमिष्ठ समुद्ररूप घर पर आता है ॥ द्वितीय—आचार्य के पक्ष में। गुरुकुल से बाहर गये हुए तथा आने में देर करते हुए आचार्य को शिष्यगण उत्सुकता से बुला रहे हैं—हे (वसो) शिष्यों में विद्या आदि का निवास करानेवाले आचार्य ! (उक्थिनः) वेदपाठी (नरः) ब्रह्मचारी लोग (सुते) विद्याध्ययन-सत्र के (निरेके) आ जाने पर (त्वा) आपको (स्वरन्ति) बुला रहे हैं। हे (इन्द्र) अविद्या एवं दुर्गुण आदि को विदीर्ण करनेवाले आचार्यवर ! (कदा) कब (तृषाणः) शिष्यों की कामना करनेवाले आप (ओकः) गुरुकुलरूप घर में (आगमः) आओगे, (इव) जैसे (वंसगः) संभजनीय गतिवाला (स्वब्दी) जल की वर्षा करनेवाला सूर्य [जल बरसाने के लिए] (ओकः) अन्तरिक्ष रूप घर में आता है ॥२॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जैसे जल का प्यासा सूर्य किरणों से समुद्र के पास पहुँचता है, वैसे ही भक्तिरस का प्यासा परमेश्वर उपासकों के हृदय में जाता है और जैसे सूर्य अन्तरिक्ष में स्थित जल को भूमि पर बरसाता है, वैसे ही आचार्य विद्यारस को छात्रों पर बरसाता है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मानमाचार्यं चाह्वयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—परमात्मपक्षे। हे (वसो) उपासकानां धनरूप, तेषु सद्गुणानां च निवासयितः परमात्मन् ! (उक्थिनः) स्तोतारः (नरः) मनुष्याः (सुते) श्रद्धारसे (निरेके२) निर्गते, उद्वेल्लिते सति (त्वा) त्वाम् (स्वरन्ति) आह्वयन्ति। [स्वृ शब्दोपतापयोः, भ्वादिः।] हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् दुर्गुणविदारक ! (कदा) कस्मिन् काले (सुतम्) अभिषुतं श्रद्धारसम् (तृषाणः) पिपासुः, त्वम् (ओकः) हृदय-सदनम् (आगमः) आगमिष्यसि, (इव) यथा (वंसगः) वननीयगमनः सेवनीयगतिः (स्वब्दी३) शोभनस्य उदकस्य दाता सूर्यः (ओकः) समुद्ररूपं गृहम् आगच्छति। [वंसः, वन संभक्तौ, वंसं वननीयं सम्भजनीयं यथा स्यात्तथा गच्छतीति वंसगः। स्वब्दी, शोभनाः मेघस्थाः अपः ददातीति तादृशः] ॥ द्वितीयः—आचार्यपक्षे। कार्यवशाद् गुरुकुलाद् बर्हिर्गतमागमने विलम्बमानं चाचार्यं शिष्याः सोत्कमाह्वयन्ति—हे (वसो) शिष्येषु विद्यादिनिवासक आचार्य ! (उक्थिनः) वेदपाठिनः (नरः) ब्रह्मचारिणः (सुते) विद्याध्ययनसत्रे (निरेके) आगते सति (त्वा) त्वाम् (स्वरन्ति) आह्वयन्ति। हे (इन्द्र) अविद्यादुर्गुणादिविदारक आचार्यवर ! (कदा) कस्मिन् काले (तृषाणः) शिष्यान् कामयमानः त्वम् (ओकः) गुरुकुलगृहम् (आगमः) आगमिष्यसि ? (वंसगः) संभजनीयगतिः (स्वब्दी) वृष्टिजलप्रदाता सूर्यः (इव) यथा जलं वर्षितुम् (ओकः) अन्तरिक्षरूपं गृहम् आगच्छति तद्वत् ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यथा जलस्य पिपासुः सूर्यः किरणैः समुद्रं प्राप्नोति तथा भक्तिरसं पिपासन् परमेश्वर उपासकानां हृदयं गच्छति, यथा च सूर्योऽन्तरिक्षस्थं जलं भूमौ वर्षति तथाऽऽचार्यो विद्यारसं छात्रेषु वर्षति ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।३३।२, अथ० २०।५२।२, ५७।१५। २. निरेके निर्गमे—इति सा०। दानवति यज्ञे—इति वि०। ३. स्वब्दीव स्वभूतशब्द इव। वंसगः वननीयगमनो वृषभः—इति सा०। स्वब्दी इन्द्रः शोभनं शब्दं करोति, पर्जन्यो भूत्वा वृष्टिधारणम्—इति वि०।