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आ꣡ प꣢प्राथ महि꣣ना꣡ वृष्ण्या꣢꣯ वृष꣣न्वि꣡श्वा꣢ शविष्ठ꣣ श꣡व꣢सा । अ꣣स्मा꣡ꣳ अ꣢व मघव꣣न्गो꣡म꣢ति व्र꣣जे꣡ वज्रि꣢꣯ञ्चि꣣त्रा꣡भि꣢रू꣣ति꣡भिः꣢ ॥८६३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

आ पप्राथ महिना वृष्ण्या वृषन्विश्वा शविष्ठ शवसा । अस्माꣳ अव मघवन्गोमति व्रजे वज्रिञ्चित्राभिरूतिभिः ॥८६३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ । प꣣प्राथ । महिना꣢ । वृ꣡ष्ण्या꣢꣯ । वृ꣣षन् । वि꣡श्वा꣢꣯ । श꣣विष्ठ । श꣡व꣢꣯सा । अ꣣स्मा꣢न् । अ꣣व । मघवन् । गो꣡म꣢꣯ति । व्र꣣जे꣢ । व꣡ज्रि꣢꣯न् । चि꣣त्रा꣡भिः꣢ । ऊ꣣ति꣡भिः꣢ ॥८६३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 863 | (कौथोम) 2 » 2 » 11 » 2 | (रानायाणीय) 4 » 4 » 1 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में परमात्मा और जीवात्मा दोनों का विषय वर्णित करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

, (शविष्ठ) सबसे अधिक बली जगदीश्वर ! आपने (महिना) महिमा से और (शवसा) बल से (विश्वा) सब (वृष्ण्या) बलों को अर्थात् आत्मबल, विद्युद्बल, वायुबल, सूर्यबल आदि को (आ पप्राथ) फैलाया है। हे (मघवन्) ऐश्वर्यशालिन् ! हे (वज्रिन्) वज्रधर के समान दण्डसामर्थ्ययुक्त ! आप (गोमति व्रजे) सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि लोक-लोकान्तरों से युक्त इस ब्रह्माण्ड में (चित्राभिः) अद्भुत (ऊतिभिः) रक्षाओं से (अस्मान्) हम उपासकों की (अव) रक्षा कीजिए ॥ द्वितीय—जीवात्मा के पक्ष में। हे (वृषन्) शरीरस्थ मन, बुद्धि आदि में सबसे अधिक बली मेरे आत्मा ! तू (महिना) महिमा से और (शवसा) बल से (विश्वा) सब (वृष्ण्या) प्राण, मन, बुद्धि आदि के बलों को (आ पप्राथ) फैलाता है। हे (मघवन्) सद्गुणों के ऐश्वर्य से युक्त ! हे (वज्रिन्) वाणीरूप वज्रवाले ! तू (गोमति व्रजे) इन्द्रियरूप गौओं से युक्त शरीररूप गोशाला में (चित्राभिः) अद्भुत (ऊतिभिः) रक्षाओं से (अस्मान्) हमारा (अव) पालन कर ॥२॥ यहाँ श्लेषालङ्कार है, ‘वृष्, वृष’ और शवि, शव’ में छेकानुप्रास है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जैसे ब्रह्माण्ड में सब बलवान् पदार्थों में परमेश्वर से उत्पन्न किया हुआ बल है, वैसे ही शरीररूप पिण्ड में प्राण, मन, बुद्धि, इन्द्रियों आदि में जीवात्मा से दिया हुआ सामर्थ्य है और जीवात्मा भी परमेश्वर से ही वैसा सामर्थ्य प्राप्त करता है ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ परमात्मजीवात्मनोरुभयोर्विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

प्रथमः—परमात्मपरः। हे (वृषन्) सुखवर्षक, (शविष्ठ) बलवत्तम जगदीश्वर ! त्वम् (महिना) महिम्ना (शवसा) बलेन च (विश्वा) सर्वाणि (वृष्णया) वृष्ण्यानि बलानि आत्मबलविद्युद्बलवायुबलसूर्यबलादीनि। [वृषसु वीर्यवत्सु भवं वृष्ण्यम्, भवार्थे यत्।] (आ पप्राथ) विस्तारितवानसि। हे (मघवन्) ऐश्वर्यशालिन् ! हे (वज्रिन्) वज्रधर इव दण्डसामर्थ्ययुक्त ! त्वम् (गोमति व्रजे) सूर्यचन्द्रनक्षत्रादिलोकलोकान्तरयुक्तेऽस्मिन् ब्रह्माण्डे (चित्राभिः) अद्भुताभिः (ऊतिभिः) रक्षाभिः (अस्मान्) उपासकान् (अव) पालय ॥ द्वितीयः—जीवात्मपरः ! हे (वृषन्) देहस्थेषु मनोबुद्ध्यादिषु बलवत्तम मदीय आत्मन् ! त्वम् (महिना) महिम्ना (शवसा) बलेन च (विश्वा) सर्वाणि (वृष्ण्या) वृष्ण्यानि प्राणमनोबुद्धीन्द्रियादीनां बलानि (आ पप्राथ) विस्तारयसि। हे (मघवन्) सद्गुणैश्वर्यवन् ! हे (वज्रिन्) वाग्वज्रयुक्त ! [वाग्घि वज्रः। ऐ० ब्रा० ४।१।] त्वम् (गोमति व्रजे) इन्द्रियरूपगोयुक्ते देहरूपे गोष्ठे (चित्राभिः) अद्भुताभिः (ऊतिभिः) रक्षाभिः (अस्मान् अव) पालय ॥२॥ अत्र श्लेषालङ्कारः। ‘वृष्, वृष’ ‘शवि, शव’ इत्यत्र छेकानुप्रासः ॥२॥

भावार्थभाषाः -

यथा ब्रह्माण्डे सर्वेषु बलवत्सु पदार्थेषु परमेश्वरकृतं बलमस्ति तथा देहपिण्डे प्राणमनोबुद्धीन्द्रियादिषु जीवात्मदत्तं सामर्थ्यं विद्यते, जीवात्मापि च परमेश्वरादेव तादृशं सामर्थ्यं प्राप्नोति ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।७०।६, अथ० २०।८१।२, ९२।२१।