ए꣣वा꣡ नः꣢ सोम परिषि꣣च्य꣡मा꣢न꣣ आ꣡ प꣢वस्व पू꣣य꣡मा꣢नः स्व꣣स्ति꣢ । इ꣢न्द्र꣣मा꣡ वि꣢श बृह꣣ता꣡ मदे꣢꣯न व꣣र्ध꣢या꣣ वा꣡चं꣢ ज꣣न꣢या꣣ पु꣡र꣢न्धिम् ॥८६१॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एवा नः सोम परिषिच्यमान आ पवस्व पूयमानः स्वस्ति । इन्द्रमा विश बृहता मदेन वर्धया वाचं जनया पुरन्धिम् ॥८६१॥
एव꣢ । नः꣣ । सोम । परिषिच्य꣡मा꣢नः । प꣣रि । सिच्य꣡मा꣢नः । आ । प꣣वस्व । पूय꣡मा꣢नः । स्व꣣स्ति꣢ । सु꣣ । अस्ति꣢ । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । आ । वि꣣श । बृहता꣢ । म꣡दे꣢꣯न । व꣣र्ध꣡य꣢ । वा꣡च꣢꣯म् । ज꣣न꣡य꣢ । पु꣡र꣢꣯न्धिम् । पु꣡र꣢꣯म् । धि꣣म् ॥८६१॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमकवि परमात्मा के काव्यरस का वर्णन है।
हे (सोम) परमकवि परमात्मा के काव्य से उत्पन्न काव्यानन्दरस ! (एव) सचमुच (परिषिच्यमानः) चारों ओर सींचा जाता हुआ, (पूयमानः) हमारे प्रति प्रेरित होता हुआ, तू (नः) हमारे लिए (स्वस्ति) कल्याण को (आ पवस्व) ला। (बृहता) महान् (मदेन) तृप्ति के साथ (इन्द्रम्) जीवात्मा में (आ विश) प्रवेश कर, (वाचम्) स्तुतिवाणी को (वर्धय) बढ़ा और स्तोता को (पुरन्धिम्) बहुत बुद्धिमान् वा बहुत कर्मवान् (जनय) कर ॥३॥ यहाँ अनेक क्रियाओं का एक कर्त्ता कारक से योग होने के कारण दीपक अलङ्कार है ॥३॥
हृदय में सींचा जाता हुआ महाकवि परमात्मा का काव्यानन्दरस सहृदय के हृदय को चमत्कृत करके उसे प्रभुगीतों का गायक, बहुत मेधावी, बहुत कर्मनिष्ठ, उत्साहवान्, सरस और दयालु बना देता है ॥३॥ इस खण्ड में गुरुजन, स्नातक, महाकविकर्म, परमकवि परमात्मा एवं उसके काव्यरस का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्वखण्ड के साथ सङ्गति है ॥ चतुर्थ अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमकवेः परमात्मनः काव्यरसं वर्णयन्नाह।
हे (सोम) परमकवेः परमात्मनः काव्याज्जनित काव्यानन्दरस ! (एव) सत्यम् (परिषिच्यमानः) परिक्षार्यमाणः, (पूयमानः) अस्मान् प्रति प्रेर्यमाणः त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (स्वस्ति) भद्रम् (आ पवस्व) आनय। (बृहता) महता (मदेन) तृप्तियोगेन (इन्द्रम्) जीवात्मानम् (आ विश) प्र विश, (वाचम्) स्तुतिवाचम् (वर्धय) वृद्धिं गमय, स्तोतारं च (पुरन्धिम्) बहुधियं बहुकर्माणं वा (जनय) कुरु। [पुरन्धिर्बहुधीः। निरु० ६।१३।५१] ॥३॥ अत्रानेकक्रियाणामेकेन कर्तृकारकेण योगाद् दीपकालङ्कारः ॥३॥
हृदये परिषिच्यमानो महाकवेः परमात्मनः काव्यानन्दरसः सहृदयस्य हृदयं चमत्कृत्य तं प्रभुगीतानां गायकं बहुप्रज्ञं बहुक्रियमुत्साहवन्तं सरसं कारुणिकं च कुरुते ॥३॥ अस्मिन् खण्डे गुरूणां, स्नातकस्य, महाकविकर्मणः, परमकवेः परमात्मनस्तत्काव्यरसस्य च वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन सह संगतिरस्ति ॥