उ꣣ग्रा꣡ वि꣢घ꣣नि꣢ना꣣ मृ꣡ध꣢ इन्द्रा꣣ग्नी꣡ ह꣢वामहे । ता꣡ नो꣢ मृडात ई꣣दृ꣡शे꣢ ॥८५४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)उग्रा विघनिना मृध इन्द्राग्नी हवामहे । ता नो मृडात ईदृशे ॥८५४॥
उग्रा꣢ । वि꣣घनि꣡ना꣢ । वि꣣ । घनि꣡ना꣢ । मृ꣡धः꣢꣯ । इ꣡न्द्राग्नी꣢ । इ꣡न्द्र । अग्नी꣡इति꣢ । ह꣣वामहे । ता꣢ । नः꣣ । मृडातः । ईदृ꣡शे꣢ ॥८५४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः परमात्मा और जीवात्मा का ही विषय वर्णित है।
(मृधः) हिंसक काम, क्रोध आदि शत्रुओं के (विघनिना) विनाशक, (उग्रा) उग्र बलवाले (इन्द्राग्नी) परमात्मा और जीवात्मा को, हम (हवामहे) पुकारते हैं। (ता) वे दोनों (ईदृशे) ऐसे विकट देवासुरसंग्राम के उपस्थित होने पर (नः) हमें (मृडातः) सुखी करें ॥२॥
सबको चाहिए कि परमात्मा की उपासना करके और जीवात्मा को उद्बोधन देकर सब विघ्नों तथा सब शत्रुओं को पराजित करें ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनः परमात्मजीवात्मनोरेव विषय उच्यते।
(मृधः) हिंसकान् कामक्रोधादीन् रिपून् (विघनिना) हन्तारौ, (उग्रा) उग्रौ उद्गूर्णबलौ (इन्द्राग्नी) परमात्मजीवात्मानौ, वयम् (हवामहे) आह्वयामः। (ता) तौ (ईदृशे) एवंविधे संग्रामे उपस्थिते (नः) अस्मान् (मृडातः) सुखयेताम्। [मृड सुखने, तुदादिः, लेटि आडागमे रूपम्] ॥२॥३
परमात्मानमुपास्य जीवात्मानं चोद्बोध्य सर्वैः सर्वे विघ्नाः सर्वे शत्रवश्च पराजेयाः ॥२॥