आ꣡ नः꣢ सोम꣣ स꣢हो꣣ जु꣡वो꣢ रू꣣पं꣡ न वर्च꣢꣯से भर । सु꣣ष्वाणो꣢ दे꣣व꣡वी꣢तये ॥८३४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)आ नः सोम सहो जुवो रूपं न वर्चसे भर । सुष्वाणो देववीतये ॥८३४॥
आ꣡ । नः꣣ । सोम । स꣡हः꣢꣯ । जु꣡वः꣢꣯ । रू꣣प꣢म् । न । व꣡र्च꣢꣯से । भ꣣र । सुष्वाणः꣢ । दे꣣व꣡वी꣣तये । दे꣣व꣡ । वी꣣तये ॥८३४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में परमात्मा से प्रार्थना की गयी है।
हे (सोम) रसागार परमात्मन् ! (देववीतये) दिव्य गुणों की प्राप्ति कराने के लिए (सुष्वाणः) आनन्द-रस को अभिषुत किये हुए आप (नः) हमारे लिए (सहः) आत्मबल और (जुवः) वेगों को (आभर) लाओ, प्रदान करो, (वर्चसे) कान्ति के लिए (रूपं न) जैसे रूप प्रदान करते हो ॥२ ॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥२॥
जब परमात्मा से प्राप्त आनन्द-रस की तरङ्गें उपासक की हृदयभूमि को आप्लावित करती हैं तब उसके अन्दर सब सद्गुण स्वयं मानो ‘मैं पहले’ ‘मैं पहले’ की होड़ लगाते हुए प्रकट हो जाते हैं ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ परमात्मानं प्रार्थयते।
हे (सोम) रसागार परमात्मन्। (देववीतये) दिव्यगुणानां प्राप्तये (सुष्वाणः) अभिषुतानन्दरसः त्वम् (नः) अस्मभ्यम् (सहः) आत्मबलम् (जुवः) वेगांश्च। [गत्यर्थाद् जवतेः क्विपि द्वितीयाबहुवचने रूपम्।] (आ भर) आहर, कथमिव ? (वर्चसे) कान्त्यै (रूपं न) यथा रूपम् आहरसि ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥
यदा परमात्मनः प्राप्ता आनन्दरसतरङ्गा उपासकस्य हृद्भूमिमाप्लावयन्ति तदा तत्र सर्वे सद्गुणाः स्वयम् अहमहमिकयेव प्रादुर्भवन्ति ॥२॥