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मो꣢꣫ षु ब्र꣣ह्मे꣡व꣢ तदिन्द्र꣣यु꣡र्भुवो꣢꣯ वाजानां पते । म꣡त्स्वा꣢ सु꣣त꣢स्य꣣ गो꣡म꣢तः ॥८२६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

मो षु ब्रह्मेव तदिन्द्रयुर्भुवो वाजानां पते । मत्स्वा सुतस्य गोमतः ॥८२६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

मा । उ꣣ । सु꣢ । ब्र꣣ह्मा꣢ । इ꣣व । तन्द्रयुः꣢ । भु꣡वः꣢꣯ । वा꣣जानाम् । पते । म꣡त्स्व꣢꣯ । सु꣣त꣡स्य꣢ । गो꣡म꣢꣯तः ॥८२६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 826 | (कौथोम) 2 » 1 » 18 » 3 | (रानायाणीय) 3 » 6 » 1 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में फिर अन्तरात्मा को उद्बोधन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (वाजानां पते) बलों के अधिपति मेरे अन्तरात्मन् ! (ब्रह्मा इव) यज्ञ के ब्रह्मा के समान उच्च पद पर विद्यमान तू (मा उ सु) कभी मत (तन्द्रयुः) आलसी (भुवः) हो और (गोमतः सुतस्य) गोदुग्धयुक्त सोमरस से अर्थात् ज्ञानकर्मयुक्त उपासना-रस से (मत्स्व) आनन्द लाभ करता रह ॥३॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यों को चाहिए कभी कि प्रमाद न करें, प्रत्युत जागरूक होकर सब शुभकर्मों में उत्साह धारण करें ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरन्तरात्मानमुद्बोधयति।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (वाजानां पते) बलानामधिपते मदीय अन्तरात्मन् ! (ब्रह्मा इव) यज्ञस्य ब्रह्मा इव उच्चपदे विद्यमानः त्वम् (मा उ सु) न खलु कदापि (तन्द्रयुः) आलस्यकामः (भुवः) भव। अपि च, (गोमतः सुतस्य) गोदुग्धयुक्तेन सोमरसेन, ज्ञानकर्मयुक्तेन उपासनारसेन इत्यर्थः। [तृतीयार्थे षष्ठी।] (मत्स्व) आनन्दं लभस्व। [मदी हर्षग्लेपनयोः भ्वादिः, आत्मनेपदं छान्दसम्] ॥–३॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥–३॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यैः कदापि प्रमादो न कार्यः प्रत्युत जागरूकैर्भूत्वा सर्वेषु शुभकर्मसूत्साहः सदा धारणीयः ॥–३॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।९२।३०, अथ० २०।६०।३।