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ए꣣वा꣡ ह्यसि꣢꣯ वीर꣣यु꣢रे꣣वा꣡ शूर꣢꣯ उ꣣त꣢ स्थि꣣रः꣢ । ए꣣वा꣢ ते꣣ रा꣢ध्यं꣣ म꣡नः꣢ ॥८२४॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

एवा ह्यसि वीरयुरेवा शूर उत स्थिरः । एवा ते राध्यं मनः ॥८२४॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए꣣व꣢ । हि । अ꣡सि꣢꣯ । वी꣣रयुः꣢ । ए꣣व꣢ । शू꣡रः꣢꣯ । उ꣣त꣢ । स्थि꣣रः꣢ । ए꣣व꣢ । ते꣣ । रा꣡ध्य꣢꣯म् । म꣡नः꣢꣯ ॥८२४॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 824 | (कौथोम) 2 » 1 » 18 » 1 | (रानायाणीय) 3 » 6 » 1 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में २३२ क्रमाङ्क पर परमात्मा और राजा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ अपने अन्तरात्मा को उद्बोधन है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे मेरे अन्तरात्मा ! तू (एव हि) सचमुच (वीरयुः) वीरों का प्रेमी (असि) है, (एव) सचमुच, तू (शूरः) शूर (उत) और (स्थिरः) विपत्तियों तथा युद्धों में अविचल रहनेवाला है। (एव) सचमुच (ते) तेरा (मनः) मन (राध्यम्) सिद्धि प्राप्त करने योग्य है ॥१॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्य का आत्मा यदि अपनी शक्ति को पहचान ले तो संसार में महान् कार्यों को कर सकता है ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके २३२ क्रमाङ्के परमात्मनृपत्योर्विषये व्याख्याता। अत्र स्वान्तरात्मा समुद्बोध्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे मदीय अन्तरात्मन् ! त्वम् (एव हि) सत्यमेव (वीरयुः) वीरान् कामयमानः (असि) वर्तसे, (एव) सत्यमेव त्वम् (शूरः) वीरः (उत) अपि च (स्थिरः) विपत्सु युद्धेषु च अविचलः असि। (एव) सत्यमेव (ते) तव (मनः) चित्तम् (राध्यम्) साद्धुं योग्यम् अस्ति ॥–१॥

भावार्थभाषाः -

मनुष्यस्यात्मा चेत् स्वशक्तिं परिचिनुयात् तर्हि जगति महान्ति कर्माणि कर्त्तुं शक्नुयात् ॥–१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ८।९२।२८, अथ० २०।६०।१। साम० २३२। ऋषिः श्रुतकक्षः।