ए꣣वा꣡ प꣢वस्व मदि꣣रो꣡ मदा꣢꣯योदग्रा꣣भ꣡स्य꣢ न꣣म꣡य꣢न्वध꣣स्नु꣢म् । प꣢रि꣣ व꣢र्णं꣣ भ꣡र꣢माणो꣣ रु꣡श꣢न्तं ग꣣व्यु꣡र्नो꣢ अर्ष꣣ प꣡रि꣢ सोम सि꣣क्तः꣢ ॥८०८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)एवा पवस्व मदिरो मदायोदग्राभस्य नमयन्वधस्नुम् । परि वर्णं भरमाणो रुशन्तं गव्युर्नो अर्ष परि सोम सिक्तः ॥८०८॥
ए꣣व꣢ । प꣣वस्व । मदिरः꣢ । म꣡दा꣢꣯य । उ꣣दग्राभ꣡स्य꣢ । उ꣣द । ग्राभ꣡स्य꣢ । न꣣म꣡य꣢न् । व꣣धस्नु꣢म् । व꣣ध । स्नु꣢म् । प꣡रि꣢꣯ । व꣡र्ण꣢꣯म् । भ꣡र꣢꣯माणः । रु꣡श꣢꣯न्तम् । ग꣣व्युः꣢ । नः꣣ । अर्ध । प꣡रि꣢꣯ । सो꣣म । सिक्तः꣢ ॥८०८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अगले मन्त्र में पुनः वही विषय वर्णित है।
हे (सोम) रस के भण्डार परमात्मन् ! (उदग्राभस्य) जल में निवास करनेवाले ग्राह के समान हिंसक कामादि शत्रु के (वधस्नुम्) वज्रशिखर को अर्थात् उसके हिंसकव्यापार को, (नमयन्) नीचे करते हुए, दूर करते हुए (मदिरः) आनन्दजनक आप (मदाय) आनन्द के लिए (एव) यथोचित रूप से (पवस्व) प्रस्रुत होवो, बहो और (सिक्तः) हृदय में सिंचे हुए आप (रुशन्तं वर्णम्) तेजस्वी रूप को (परि भरमाणः) धारण करते हुए (गव्युः) दिव्य प्रकाश की किरणें प्रदान करना चाहते हुए (नः) हमें (परि अर्ष) चारों ओर से प्राप्त होवो ॥३॥
परमात्मा की उपासना से दुर्विचार नष्ट होते हैं, सद्विचार तथा सद्गुण उत्पन्न होते हैं, दिव्य ज्योति चमकने लगती है और आनन्दरस की धाराएँ उपासक को आप्लुत कर देती हैं ॥३॥ इस खण्ड में ब्रह्मविद्या में आचार्य का योगदान कहकर परमात्मा के पास से जीवात्मा में ब्रह्मानन्द का प्रवाह वर्णित होने से इस खण्ड की पूर्व खण्ड के साथ सङ्गति है ॥ तृतीय अध्याय में तृतीय खण्ड समाप्त ॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
अथ पुनरपि स एव विषयो वर्ण्यते।
हे (सोम) रसागार परमात्मन् ! (उदग्राभस्य) उदके निवसतो ग्राहस्य इव हिंसकस्य कामादिशत्रोः (वधस्नुम्) वज्रसानुम्, हिंसाव्यापारमित्यर्थः। [वध इति वज्रनाम। निघं० २।२०। स्नुशब्दः सानुपर्यायः।] (नमयन्) अधः कुर्वन् (मदिरः) आनन्दजनकः त्वम् (मदाय) आनन्दाय (एव) यथायथम् (पवस्व) प्रस्रव। किञ्च, (सिक्तः) हृदये क्षारितः त्वम् (रुशन्तं वर्णम्) तेजस्विरूपम् (परि भरमाणः) परिधारयन् (गव्युः) गाः दिव्यप्रकाशरश्मीन् अस्मभ्यं प्रदातुकामः (नः) अस्मान् (परि अर्ष) परिप्राप्नुहि ॥३॥
परमात्मोपासनेन दुर्विचारा नश्यन्ति, सद्विचाराः सद्गुणाश्चोत्पद्यन्ते, दिव्यं ज्योतिर्दीप्यते, आनन्दरसधाराश्चोपासकमाप्लावयन्ति ॥३॥ अस्मिन् खण्डे ब्रह्मविद्यायामाचार्यस्य योगदानमुक्त्वा परमात्मनः सकाशाज्जीवात्मनि ब्रह्मानन्दप्रवाहस्य वर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन सह संगतिरस्ति ॥