तं꣡ त्वा꣢ ध꣣र्त्ता꣡र꣢मो꣣ण्यो꣢३: प꣡व꣢मान स्व꣣र्दृ꣡श꣢म् । हि꣣न्वे꣡ वाजे꣢꣯षु वा꣣जि꣡न꣢म् ॥८०४॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)तं त्वा धर्त्तारमोण्यो३: पवमान स्वर्दृशम् । हिन्वे वाजेषु वाजिनम् ॥८०४॥
तम् । त्वा꣣ । धर्ता꣡र꣢म् । ओ꣣ण्योः꣢ । प꣡व꣢꣯मानः । स्व꣣र्दृ꣡श꣢म् । स्वः꣣ । दृ꣡श꣢꣯म् । हि꣣न्वे꣢ । वा꣡जे꣢꣯षु । वा꣣जि꣡न꣢म् ॥८०४॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
इस प्रकार ब्रह्मविद्या में आचार्य का योगदान कहकर अब परमात्मा का विषय वर्णित करते हैं।
हे (पवमान) पवित्रकर्त्ता, सर्वान्तर्यामी जगदीश्वर ! (ओण्योः) द्युलोक और भूलोक को (धर्तारम्) धारण करनेवाले, (स्वर्दृशम्) सूर्य वा मोक्षानन्द का दर्शन करानेवाले, (वाजिनम्) बलवान् (तं त्वा) उस प्रसिद्ध तुझको, मैं (वाजेषु) बलों के निमित्त से (हिन्वे) प्रसन्न करता हूँ ॥२॥
जो जगदीश्वर सूर्य, भूमि आदि को धारण करता है, वह विपत्तियों में बल-प्रदान द्वारा अपने उपासकों को भी क्यों न धारण करेगा ॥२॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
एवं ब्रह्मविद्यायामाचार्यस्य योगदानमुक्त्वा सम्प्रति परमात्मविषयमाह।
हे (पवमान) पवित्रकर्तः सर्वान्तर्यामिन् जगदीश्वर ! (ओण्योः) द्यावापृथिव्योः। [ओण्यौ इति द्यावापृथिव्योर्नाम। निघं० ३।३०।] (धर्तारम्) धारकम्, (स्वर्दृशम्) सूर्यस्य मोक्षानन्दस्य वा दर्शकम्, (वाजिनम्) बलवन्तम् (तं त्वा) तादृशं प्रसिद्धं त्वाम्, अहम् (वाजेषु) बलेषु निमित्तेषु (हिन्वे) प्रीणयामि। [हिवि प्रीणनार्थो भ्वादिः, आत्मनेपदं छान्दसम्] ॥२॥
यो जगदीश्वरो द्यावापृथिव्यादिकस्य धर्ताऽस्ति स विपत्सु बलप्रदानेन स्वोपासकानपि कुतो न धारयेत् ॥२॥