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इ꣢न्द्र꣣ इ꣢꣯द्धर्योः꣣ स꣢चा꣣ स꣡म्मि꣢श्ल꣣ आ꣡ व꣢चो꣣यु꣡जा꣢ । इ꣡न्द्रो꣢ व꣣ज्री꣡ हि꣢र꣣ण्य꣡यः꣢ ॥७९७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

इन्द्र इद्धर्योः सचा सम्मिश्ल आ वचोयुजा । इन्द्रो वज्री हिरण्ययः ॥७९७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ꣡न्द्रः꣢꣯ । इत् । ह꣡र्योः꣢꣯ । स꣡चा꣢꣯ । सं꣡मि꣢꣯श्लः । सम् । मि꣣श्लः । आ꣢ । व꣣चोयु꣡जा꣢ । व꣣चः । यु꣡जा꣢꣯ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । व꣡ज्री꣢ । हि꣣रण्य꣡यः꣢ ॥७९७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 797 | (कौथोम) 2 » 1 » 8 » 2 | (रानायाणीय) 3 » 2 » 3 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

द्वितीय ऋचा पूर्वार्चिक में ५९७ क्रमाङ्क पर परमात्मा के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ जीवात्मा का विषय कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(इन्द्रः इत्) देह का अधिष्ठाता जीवात्मा ही (वचोयुजा) कहते ही जुड़ जानेवाले (हर्योः) ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय रूप घोड़ों का (सचा) एक साथ (आ सम्मिश्लः) ज्ञान और कर्मों में जोड़नेवाला है। (इन्द्रः) वह जीवात्मा (वज्री) वाणी रूप वज्र का धारण करनेवाला और (हिरण्ययः) प्राणमय, ज्योतिर्मय, तथा कीर्तिमय है ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जिस जीवात्मा की प्रेरणा से ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ अपने-अपने व्यापारों में नियुक्त होती हैं, जो जीवात्मा वाणीरूप वज्र से कुतार्किकों के कुतर्कों का खण्डन करता है, जो प्राणों का अधिष्ठाता, तेजस्वी और यशस्वी है, उसे उद्बोधन देकर सब लोग अपने अभीष्टों को सिद्ध करें ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

द्वितीया ऋक् पूर्वार्चिके ५९७ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्र जीवात्मविषय उच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(इन्द्रः इत्) देहाधिष्ठाता जीवात्मैव (वचोयुजा) वचोयुजोः वचनसमकालमेव युज्यमानयोः (हर्योः)ज्ञानेन्द्रियकर्मेन्द्रियरूपयोः अश्वयोः (सचा) सह, युगपत् (आ सम्मिश्लः) आ सम्मिश्रः, ज्ञानकर्मसु नियोक्ता विद्यते। (इन्द्रः) स जीवात्मा (वज्री) वाग्वज्रधरः। [वाग्घि वज्रः। ऐ० ब्रा० ४।१।] (हिरण्ययः) प्राणमयो ज्योतिर्मयो यशोमयो वा विद्यते। [प्राणो वै हिरण्यम्। श० ७।५।२।८। ज्योतिर्वै हिरण्यम्। तां० ब्रा० ६।६।१०, यशो वै हिरण्यम्। ऐ० ब्रा० ७।१८] ॥२॥१

भावार्थभाषाः -

यस्य जीवात्मनः प्रेरणया ज्ञानेन्द्रियाणि कर्मेन्द्रियाणि च स्वस्वव्यापारेषु नियुज्यन्ते, यो जीवात्मा वाग्वज्रेण कुतार्किकाणां कुतर्कान् खण्डयति, यः प्राणाधिष्ठाता तेजस्वी यशस्वी चास्ति तमुद्बोध्य सर्वे समीहितानि साध्नुवन्तु ॥२॥

टिप्पणी: ३. ऋ० १।७।२, साम० ५९७, अथ० २०।३८।५, ४७।५, ७०।८। १. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं वायुसूर्यपक्षे व्याचष्टे।