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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: अहमीयुराङ्गिरसः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

स꣡ नः꣢ पुना꣣न꣡ आ भ꣢꣯र र꣣यिं꣢ वी꣣र꣡व꣢ती꣣मि꣡ष꣢म् । ई꣡शा꣢नः सोम वि꣣श्व꣡तः꣢ ॥७८९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

स नः पुनान आ भर रयिं वीरवतीमिषम् । ईशानः सोम विश्वतः ॥७८९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः꣢ । नः꣣ । पुनानः꣢ । आ । भ꣣र । रयि꣢म् । वी꣣र꣡व꣢तीम् । इ꣢ष꣢꣯म् । ई꣡शा꣢꣯नः । सो꣣म । विश्व꣡तः꣢ ॥७८९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 789 | (कौथोम) 2 » 1 » 5 » 3 | (रानायाणीय) 3 » 1 » 5 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में फिर उन्हीं से प्रार्थना की गयी है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वर वा आचार्य ! (ईशानः) समर्थ (सः) वह प्रसिद्ध आप (नः) हमें (पुनानः) पवित्र अन्तःकरणवाला करते हुए (विश्वतः) सब ओर से (रयिम्) आध्यात्मिक तथा भौतिक ऐश्वर्य को और (वीरवतीम्) वीरतायुक्त (इषम्) प्रगति को (आ भर) प्रदान कीजिए ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जगदीश्वर और आचार्य से सत्प्रेरणा प्राप्त करके पवित्र हृदयवाले होकर मनुष्य महान् उन्नति कर सकते हैं ॥३॥ इस खण्ड में जगदीश्वर, आचार्य और राजा के गुण-कर्म आदि का वर्णन होने से इस खण्ड की पूर्वखण्ड के साथ सङ्गति जाननी चाहिए ॥ तृतीय अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि तावेव प्रार्थ्येते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर आचार्य वा ! (ईशानः) अधीश्वरः (सः) प्रसिद्धः त्वम् (नः) अस्मान् (पुनानः) पवित्रान्तःकरणान् कुर्वन् (विश्वतः) सर्वतः (रयिम्) आध्यात्मिकं भौतिकं च ऐश्वर्यम्, अपि च (वीरवतीम्) वीरत्वोपेताम् (इषम्) प्रगतिम्। [इषु गतौ, दिवादिः, ततः क्विप्।] (आ भर) आहर, प्रयच्छ ॥२॥

भावार्थभाषाः -

जगदीश्वरादाचार्याच्च सत्प्रेरणां प्राप्य पवित्रहृदया भूत्वा जना महतीमुन्नतिं कर्त्तुं प्रभवन्ति ॥३॥ अस्मिन् खण्डे जगदीश्वराचार्यनृपतीनां गुणकर्मादिवर्णनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन सह संगतिर्वेद्या ॥

टिप्पणी: २. ऋ० ९।६१।६।