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आ꣡ प꣢वस्व सु꣣वी꣢र्यं꣣ म꣡न्द꣢मानः स्वायुध । इ꣣हो꣡ ष्वि꣢न्द꣣वा꣡ ग꣢हि ॥७८६॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

आ पवस्व सुवीर्यं मन्दमानः स्वायुध । इहो ष्विन्दवा गहि ॥७८६॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ꣢ । प꣣वस्व । सुवी꣡र्य꣢म् । सु꣣ । वी꣡र्य꣢꣯म् । म꣡न्द꣢꣯मानः । स्वा꣣युध । सु । आयुध । इ꣢ह । उ꣣ । सु꣢ । इ꣣न्दो । आ꣢ । ग꣣हि ॥७८६॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 786 | (कौथोम) 2 » 1 » 4 » 3 | (रानायाणीय) 3 » 1 » 4 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में फिर वही विषय वर्णित है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (स्वायुध) उत्कृष्ट दण्डसामर्थ्यवाले जगदीश्वर तथा तीक्ष्ण शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित राजन् ! (मन्दमानः) प्रसन्न होते हुए आप (सुवीर्यम्) श्रेष्ठ आत्मबल, धैर्यबल, उत्साहबल और शारीरिक बल को (आ पवस्व) हमारे अन्दर प्रवाहित कीजिए। हे (इन्दो)तेजस्वी राजराजेश्वर परमात्मन् और राजन् ! आप(इह उ) यहाँ हमारे हृदय में वा राजगद्दी पर (सु आगहि) भली-भाँति पधारिए ॥३॥

भावार्थभाषाः -

जैसे परमात्मा अपने उपासकों का हार्दिक निवेदन सुनकर सज्जनों को उत्साहित और दुर्जनों को दण्डित करता है, वैसे ही राजा को चाहिए कि वह राष्ट्रवासियों का निवेदन सुनकर प्रजा को रक्षित और उत्साहित करे तथा पापी शत्रुओं को बन्दूक, तोप, आकाशीय गोले आदि हथियारों से विनष्ट करे ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (स्वायुध) उत्कृष्टदण्डसामर्थ्ययुक्त जगदीश्वर तीव्रशस्त्रास्त्रसुसज्जित राजन् वा ! (मन्दमानः)मोदमानः (त्वम्)। [मदि स्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु।] (सुवीर्यम्) श्रेष्ठम् आत्मबलम् धैर्यबलम् उत्साहबलं दैहिकबलं च (आ पवस्व) अस्मासु प्रवाहय। हे (इन्दो) तेजस्विन् राजराजेश्वर परमात्मन् नृपते वा ! त्वम् (इह उ) अत्रास्माकं हृदये राजासने वा (सु आ गहि) शोभया साकम् आगच्छ ॥३॥

भावार्थभाषाः -

यथा परमात्मा स्वोपासकानां हार्दिकं निवेदनं श्रुत्वा सज्जनानुत्साहयति दुर्जनान् दण्डयति च तथैव नृपतिना राष्ट्रवासिनां निवेदनमाकर्ण्य प्रजा रक्षणीया उत्साहनीयाश्च पापाः शत्रवश्च भुशुण्डीशतघ्न्याकाशगोलकादिभिरायुधैर्विध्वंसनीयाः ॥३॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६५।५।