प꣡व꣢स्वेन्दो꣣ वृ꣡षा꣢ सु꣣तः꣢ कृ꣣धी꣡ नो꣢ य꣣श꣢सो꣣ ज꣡ने꣢ । वि꣢श्वा꣣ अ꣢प꣣ द्वि꣡षो꣢ जहि ॥७७८॥
(यदि आप उपरोक्त फ़ॉन्ट ठीक से पढ़ नहीं पा रहे हैं तो कृपया अपने ऑपरेटिंग सिस्टम को अपग्रेड करें)पवस्वेन्दो वृषा सुतः कृधी नो यशसो जने । विश्वा अप द्विषो जहि ॥७७८॥
प꣡व꣢꣯स्व । इ꣣न्दो । वृ꣡षा꣢꣯ । सु꣣तः꣢ । कृ꣣धि꣢ । नः꣣ । यश꣡सः꣢ । ज꣡ने꣢꣯ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । अ꣡प꣢꣯ । ꣡द्विषः꣢꣯ । ज꣣हि ॥७७८॥
हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में ४७९ क्रमाङ्क पर परमात्मा को सम्बोधित की गयी थी। यहाँ परमात्मा, आचार्य तथा राजा से प्रार्थना की गयी है।
हे (इन्दो) तेजस्वी परमात्मन्, आचार्य और राजन् ! (वृषा) विद्या और सुख की वर्षा करनेवाले, (सुतः) हमसे प्रार्थना और प्रेरणा किये गये आप (पवस्व) हमें पवित्र कीजिए । (जने) जन-समुदाय में (नः) हमें (यशसः) यशस्वी (कृधि) कीजिए, (विश्वाः द्विषः) सब द्वेष-वृत्तियों को और सब द्वेषियों को (अप जहि) विनष्ट कर दीजिए ॥१॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेष अलङ्कार है ॥१॥
जगदीश्वर, आचार्य और राजा से विद्या, सुख, पवित्रता, कीर्ति और द्वेष-पाप आदि का विनाश प्राप्त करके सब लोग सफल जीवनवाले होवें ॥१॥
संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४७९ क्रमाङ्के परमात्मानं सम्बोधिता। अत्र परमात्माऽऽचार्यो नृपतिश्च प्रार्थ्यते।
हे (इन्दो) तेजस्विन् परमात्मन् आचार्य नृपते च (वृषा) विद्यावर्षकः सुखवर्षकश्च, (सुतः) अस्माभिः प्रार्थितः प्रेरितश्च त्वम् (पवस्व) अस्मान् पुनीहि। (जने) जनसमाजे (नः) अस्मान् (यशसः) यशस्विनः (कृधि) कुरु। (विश्वाः द्विषः) सर्वाः द्वेषवृत्तीः, सर्वान् द्वेष्टॄन् वा (अप जहि) विनाशय ॥१॥ अत्रार्थश्लेषालङ्कारः ॥१॥
जगदीश्वरादाचार्यान्नृपतेश्च विद्यां सुखं पवित्रतां कीर्तिं द्वेषपापादिविनाशं च प्राप्य सर्वे जनाः सफलजीवना भवेयुः ॥१॥