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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: श्यावाश्व आत्रेयः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

प्र꣡ सोमा꣢꣯सो मद꣣च्यु꣢तः श्र꣡व꣢से नो म꣣घो꣡ना꣢म् । सु꣣ता꣢ वि꣣द꣡थे꣢ अक्रमुः ॥७६९॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

प्र सोमासो मदच्युतः श्रवसे नो मघोनाम् । सुता विदथे अक्रमुः ॥७६९॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र꣢ । सो꣡मा꣢꣯सः । म꣣दच्यु꣡तः꣢ । म꣣द । च्यु꣡तः꣢꣯ । श्र꣡व꣢꣯से । नः꣣ । मघो꣡ना꣢म् । सु꣣ताः꣢ । वि꣣द꣡थे꣢ । अ꣣क्रमुः ॥७६९॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 769 | (कौथोम) 1 » 2 » 21 » 1 | (रानायाणीय) 2 » 6 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ४७७ पर दिव्य आनन्द-रस के विषय में व्याख्या की गयी थी। यहाँ ज्ञानरस का विषय वर्णित करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सुताः) आचार्य के द्वारा उत्पन्न किये गए, (मदच्युतः)आनन्दवर्षक (सोमासः) अध्यात्मविद्या के रस (मघोनाम् नः) हम विद्याधन के धनियों के (श्रवसे) यश के लिए (विदथे) विद्या-यज्ञ में (प्र अक्रमुः) प्रवाहित हो रहे हैं ॥१॥

भावार्थभाषाः -

शिष्यों को चाहिए कि सुयोग्य गुरुओं के पास जाकर उनके पास से सब अध्यात्म विज्ञान ग्रहण करके परमात्मा का साक्षात्कार करें ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४७७ क्रमाङ्के दिव्यानन्दरसविषये व्याख्याता। अत्र ज्ञानरसविषयमाह।

पदार्थान्वयभाषाः -

(सुताः) आचार्येण अभिषुताः, सम्पादिताः (मदच्युतः) आनन्दवर्षिणः (सोमासः) अध्यात्मज्ञानरसाः (मघोनाम् नः) विद्याधनवताम् अस्माकम् (श्रवसे) यशसे (विदथे) विद्यायज्ञे (प्र अक्रमुः) प्रक्रमन्ते प्रवहन्ति ॥१॥

भावार्थभाषाः -

शिष्याः सुयोग्यान् गुरूनुपगम्य तत्सकाशात् सर्वमध्यात्मविज्ञानं गृहीत्वा परमात्मानं साक्षात्कुर्युः ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।३२।१, ‘मघोनाम्’ इत्यत्र ‘म॒घोनः॑’ इति पाठः। साम० ४७७।